बदहजमी (अपच) का होम्योपैथिक इलाज [ Homeopathic Medicine For Dyspepsia ]

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डिस्पेप्सिया का अर्थ है – बदहजमी, अजीर्ण या अग्निमांद्य रोग! हम लोग जो कुछ खाते हैं, वह यदि अच्छी तरह न पचे, तो शरीर की सभी क्रियाओं में गड़बड़ी पैदा हो जाती है, परिणाम यह होता है कि शरीर क्रमश: कमजोर, रक्तहीन और बेकार हो जाता है – यही अजीर्ण (डिस्पेप्सिया) का रोग है। आजकल प्राय: सभी जगहों पर यह रोग दिखाई देता है, किंतु रोगियों की संख्या ग्रामीण-क्षेत्र में रहने वालों की अपेक्षा शहर में रहने वालों की अधिक होती है। अजीर्ण का वास्तविक कारण ज्ञात करना कठिन है। विद्वान होम्योपैथ इसका कारण निम्न मानते हैं –

पाचन-यंत्र या यांत्रिक परिवर्तन – जैसे अांतों में श्लेष्मा, प्रदाह, जख्म, आंतों का मोटी पड़ जाना इत्यादि कारणों से अजीर्ण हो सकता है। इसके अतिरिक्त गैस्ट्रिक जूस (पाचक रस-यह पाकाशय से निकलता है), पैंक्रियाटिक जूस (क्लोमरस), यकृत, पित्तकोष और आंतों से रस के स्राव यदि थोड़ा हो या उनके गुणों में किसी प्रकार का परिवर्तन हो जाए, तो अजीर्ण हो जाता है।

मानसिक उत्तेजना और अत्यधिक मानसिक परिश्रम – बहुत अधिक चिंता, बुरी सूचना, शोक, पढ़ना इत्यादि से नर्वस-सिस्टम की स्वाभाविक क्रिया में गड़बड़ी होने से अजीर्ण-मंदाग्नि होता है। इसके अलावा अनियमित खान-पान, जैसे मदिरा का सेवन करना, बहुत ज्यादा लाल मिर्च खाना, राई आदि का अधिक प्रयोग करना; आइसक्रीम, कुल्फी, बहुत ज्यादा चाय या कॉफी, अफीम और उत्तेजक पदार्थों का प्रयोग करना तथा बाज़ार की बनी चीजें खाने की वजह से भी बदहजमी तया अजीर्ण हो सकता है।

हम लोग नित्य जो कुछ खाते-पीते हैं, वह अपनी पाचन-शक्ति के अनुकूल है या नहीं, इस पर अच्छी तरह से ध्यान न देना। यदि आहार पाचन-शक्ति के अनुकूल नहीं होता है, तब भी इस रोग की उत्पत्ति हो जाती है। खाई हुई वस्तु पचाने के निमित्त यद्यपि सृष्टिकर्ता ने प्रत्येक मनुष्य के शरीर को लार, गैस्ट्रिक-जूस तथा आंत और पैंक्रियस (पाचन-ग्रंथि) से एक प्रकार का रस निकलकर सब तरह के खाद्य-पदार्थ पचाने की शक्ति दी है, लेकिन फिर भी ऐसा होता है कि किसी को पाचन रस अधिक तथा लार और पित्तादि कम रहता है अथवा किसी को लार या पित्तादि अधिक रहता है और गैस्ट्रिक-जूस कम निकलता है। अत: जिन्हें गैस्ट्रिक-जूस अधिक और लार व पित्त कम निकलते हैं, यदि ऐसा कोई व्यक्ति अधिक चर्बी मिले पदार्थ और चुपड़ी रोटी, पूड़ी, पराठे, गोल आलू प्रतिदिन खाएगा, तो उसे अच्छी तरह पाचन न होकर बदहजमी हो जाएगी; यदि वही व्यक्ति दाल, मांस, अंडा आदि हिसाब से खाएगा, तो सहज में ही पाचन हो जाएगा और स्वास्थ्य भी अच्छा रहेगा। इसी तरह जिस व्यक्ति में गैस्ट्रिक-जूस कम है और लार, पित्त इत्यादि अधिक निकलते हैं, यदि वह व्यक्ति मांस-मदिरा, अंडा इत्यादि अधिक मात्रा में खाएगा, तो हजम न कर सकेगा और उसे अजीर्ण हो जाएगा।

अजीर्ण रोग के प्रधान लक्षण हैं – कब्ज का होना, भूख न लगना या राक्षसी भूख होना, हमेशा चटपटी, खट्टी, गरम और मसालेदार चीजें खाने की इच्छा। पाकस्थली में वायु इकट्ठा होना और उस वायु की उर्ध्व गति होकर श्वास-प्रश्वास में कष्ट होना; कलेजा धड़कना, बार-बार बुरी डकार आना। पाकस्थली में अम्ल होने की वजह से खट्टी डकारें, पनीली डकारें, कलेजे में जलन, मुंह में पानी भर आना, गले के भीतर कोई पोटली-सी अड़ी हुई मालूम होना, खायी हुई चीज न पचकर वमन और दस्त होना।

पाकस्थली के ऊपर की तरफ अग्रखंड की जगह पर दर्द, स्पर्श का सहन न होना, हमेशा पेट भारी मालूम होना, पेट में गड़बड़ी तथा उसका फूलकर नगाड़ा हो जाना। शारीरिक और मानसिक परिश्रम से अरुचि, थोड़े परिश्रम से ही थक जाना; सुस्ती, मन बैठा हुआ, फुर्ती का न रहना, चिड़चिड़ा स्वभाव, जरा-जरा-सी बात पर ही गुस्सा आ जाना, नींद न आना, नींद में तरह-तरह के सपने देखना, सिर में चक्कर, आंखों से कम दिखाई देना, चेहरा बदरंग, क्लिष्ट धंसी हुई आंखें । शरीर का रंग पीला हो जाना, होंठ, मुंह, जीभ और आंखों में रक्त कम होते जाना। हमेशा हाथ-पैरों का ठंडा रहना और जरा-सी ठंड में ही सर्दी लग जाना। क्रमशः शरीर का मांस और शक्ति घटते जाना, दुबला-पतला और अकर्मण्य होना।

इस रोग में पथ्य और पाचन-शक्ति पर पहले लक्ष्य रखकर पीछे औषधि आदि का प्रयोग करना चाहिए। रोगी रोटी-आटा, मैदा, दाल, आलू, भात, मछली, अंडा आदि कोई भी चीज खाता है, वह आसानी से पच जाती है, किंतु वह पूरी, परांठे और मांसादि को नहीं पचा पाता है। इसलिए यदि पहले आहार की व्यवस्था के बाद औषध की व्यवस्था की जाए, तो रोगी को जल्दी आराम हो जाता है। इसलिए शरीर की अवस्था और आयु के अनुसार ही आहार का प्रबंध करना चाहिए। युवकों की अपेक्षा वृद्धों को कम मात्रा में खाना चाहिए।

बच्चों की बदहजमी का प्रधान कारण – माता के स्तन के दूध का दोष या उनकी पाचन-शक्ति की क्षीणता है, अतः उनकी भोजन की मात्रा के प्रति चिकित्सकों को सावधान रहना चाहिए तथा उनके आहार की व्यवस्था सोच-समझकर करानी चाहिए। भोजन के समय बार-बार पानी पीने से पाचन-शक्ति घटती है। अजीर्ण के रोगी को भोजन के समय पानी पीना मना है। वे भोजन के एक घंटा बाद पानी पी सकते हैं। रोटी आदि खूब चबा-चबाकर खानी चाहिए। खीरा, ककड़ी आदि कच्चे फल और अधपके फल भी न खाने चाहिए। जिनको अम्ल होता है अर्थात खट्टी डकार आती है, खट्टी कै होती है, उनको किसी भी प्रकार खट्टी चीजों का सेवन न करना चाहिए।

अजीर्ण के रोगी को एक बार में, अधिक मात्रा में अर्थात खूब पेट भरकर खाना उचित नहीं है, भूख लगने पर हल्की चीज कई बार में खानी चाहिए। अजीर्ण के रोगी को भोजन के एक घंटा पहले और एक घंटा बाद तक पूरी तरह विश्राम करना चाहिए। हम लोग जो चीजें खाते हैं, उसे पाकस्थली में पचकर छोटी आंत में प्रवेश करने में 1 से 3-4 घंटे का समय लगता है, अत: हजम हो जाने के बाद, फिर यदि थोड़ा पानी पिया जाए, तो इससे पाचन-क्रिया में सहायता पहुंचती है। गरम पानी अम्ल के रोग की महौषधि है। भूख न लगने, अजीर्ण-रोग या अग्निमांद्य के लक्षणों में से हैं – पेट में बोझ-सा बना रहना, पेट भरा-भरा-सा लगना, पेट में जलन होना या पेट से गले तक जलन का आना, खट्टी डकारें आना, भोजन के दो-तीन घंटे बाद तक उक्त लक्षण का बढ़ना, मुंह से बदबू आना, जीभ मैली रहना, मुंह का स्वाद कड़वा रहना। कई रोगी कहते हैं – कड़वा श्वास आता है।

पेट से खट्टी डकार आती रहना, पेट में वायुसंचय रहना, कब्ज रहना या अपच, पेट में वायु इतनी भरी रहती है कि उसका दबाव हृदय पर भी पड़ता है, जिससे की धड़कन तेज होने लगती है। पेट ठीक न होने से रोगी चिड़चिड़ा बना रहता है, मन में उत्साह नहीं दिखता, मन उदास और खिन्न रहता है, सिरदर्द और चिक्कर भी आ जाता है। धातुग्रस्त लोगों को प्राय: अग्निमांद्य भोगना पड़ता है। जब इन्हे कोई चर्मरोग होता है, तब यह अजीर्ण रोग कम हो जाता है।

नए अजीर्ण रोग में – नक्सवोमिका, आर्स, ब्रायोनिया, बिस्मथ (रात्रि में अधिक कष्ट, आक्षेप), पल्सेटिला (भारी चीजें या चर्बीयुत चीजें खाने के बाद अजीर्ण), आइरिस (कै या पतले दस्त के समय सिरदर्द में), कोलोसिंथ (खट्टे फल-मूल खाने के कारण अजीर्ण)।

पुराने अजीर्ण रोग में – नक्सवोमिका, आर्स, ब्रायोनिया, कार्बोवेज, पल्सेटिला, सल्फ, कैल्केरिया कार्ब, हिपर सल्फर, मर्क, कैलि-बाई, अर्निका, थूजा ( या कॉफी पीने के कारण अजीर्ण होने पर) एण्टिम-क्रूड, लाइकोपोडियम।

सर्दी लगने के कारण अजीर्ण में – ऐकोन, डल्का, मर्क।

मानसिक भावों की अधिकता के कारण अजीर्ण में – नक्सवोमिका, काम-काज की चिंता और रात में जागरण के कारण अजीर्ण में, इग्नेशिया (शोक-में)।

कमजोरी से पैदा हुए अजीर्ण में – चायना, एसिड-फॉस, फेरम आदि।

नक्सवोमिका 1x – अच्छी तरह पाचन न होने के कारण पेट में दर्द। दर्द – खोंचा मारने और ऐंठन की तरह। कब्ज या लगातार पाखाने की हाजत रहने के साथ थोड़ा-थोड़ा मल होना। कै होती है तो कभी खट्टी, कभी तीती या केवल औकाई आती है, पेट में वायु-संचय होती है, मुंह में पानी भर आता है। गरम पानी पीने से रोगी को कुछ राहत मालूम होती है। गले में उंगली डालकर रोगी वमन करने की कोशिश करता है। पेट वायु से फूला रहता है।

कार्बोवेज 1x – आंतों में बहुत अधिक परिमाण में वायु इकट्ठी होती है, इससे नीचे का पेट फूलता है, पेट के फूलने के साथ ही डकारें आती हैं, डकारें बहुत कष्ट से निकलती हैं, उससे रोगी को थोड़ा आराम मिलता है। इसमें प्राय: भोजन के एक घंटे बाद पेट फूलना आरंभ होता है, कलेजे में जलन होती है, कोई भी खाद्य हजम नहीं होता, बहुत हल्का आहार भी मानों भाप में परिणत हो जाता है। बहुत दिनों तक रोग भोगने के कारण रोगी का मिजाज चिड़चिड़ा हो जाता है। पेट की गड़बड़ी के कारण रोगी के सिर में चक्कर आता है। पहले-मांस, दूध, घी में बनी हुई चीजें और बाद में-हल्की खुराक भी सहन नहीं होती। कब्जियत रहती है, बवासीर भी हो जाती है।

पेपसीनम 1x – डॉ० वार्टलेट का कथन है कि इस औषध से अजीर्ण का रोग, जिसमें पाचक-रस की कमी के कारण या पेशियों की कमज़ोरी के कारण भोजन नहीं पचता, दूर हो जाती है।

चायना 6, 30 – खाद्य अच्छी तरह नहीं पचता, व्यक्ति जो कुछ भी खाता है, वह वायु में परिणत हो जाता है। फल बिल्कुल ही सहन नहीं होते, फल खाने पर ही पेट का रोग होता है। आहार के बाद छाती में गोले की तरह एक पदार्थ धक्का देकर ऊपर चढ़ता है, ऐसा मालूम होता है, जैसे समस्त खाद्य ही वहां पर अटका हुआ है। पेट फूलता है, ऊपर और नीचे का समूचा पेट ही फूल उठता है, डकार आने पर या वायु निकलने पर भी कष्ट घटने के स्थान पर और ज्यादा बढ़ जाता है। अतिसार रहने से अजीर्ण या जैसे का तैसा खाद्य मल के साथ निकलता है।

हाइड्रेस्टिस 30 – रोगी का पेट फूला-सा रहता है, कभी-कभी पेट आंतों से चिपका-सा रहता है, खट्टी डकार आती हैं, कभी कब्ज तो कभी अतिसार हो जाता है। कब्ज के साथ खट्टी डकार आती है। यदि इसका मदर टिंचर रोज सवेरे दो-तीन बूंद की मात्रा में सेवन किया जाए, तो कोठा साफ हो जाता है।

होमैरस 3x, 6 – यह औषधि केकड़े के पाचक-रस से निर्मित होती है। यह देखा गया है कि जब केकड़ों को पकड़ा जाता है, तब उनके पेट में घोंघे आदि दुष्पच वस्तुएं होती हैं, कुछ घंटों में ही जो पच जाती हैं। इस दृष्टि से पाचन-क्रिया के लिए यह औषध अत्यंत उपयोगी है। डॉ० कुशिंग का कहना है कि अजीर्ण-रोग में यह सर्वोत्तम औषधि है।

नक्सवोमिका 30, 200 – पेट के भिन्न-भिन्न प्रकार के रोगों के लिए यह औषधि प्रसिद्ध है। खाने के एकदम बाद तो नहीं, किंतु एक या दो घंटे बाद पेट का भारी हो जाना (खाने के एकदम बाद पेट का भारी हो जाना – कैलि बाई, नक्स मोस्केटा, एनाकार्डियम), ऐसा भारी लगना कि पेट में पत्थर जा पड़ा है – खाने के बाद दो-तीन घंटे मानसिक-परिश्रम कर ही न सकना, चित्त-म्लान हो जाना और सिरदर्द होने लगना-ये इसके अजीर्ण रोग के विशेष लक्षण हैं। पेट में इस कदर वायु भर जाती है कि वह पेट के पर्दे को ऊपर की तरफ धक्का देती है (छाती की छोटी पसलियों के नीचे वायु बंद हो जाने के कारण ऊपर की तरफ धक्के में – कार्बोवेज), इस धक्के से दिल की धड़कन होने लगती है। बहुत अधिक खाने से, व्यभिचार, ज्यादा मदिरा पी जाने, गरिष्ठ पदार्थ खाने, अधिक ऐलोपैथिक औषधियों का सेवन, सुस्ती से दिन बिताने आदि से यदि पाचन-शक्ति क्षीण हो जाए, तो इसी औषधि को स्मरण करना चाहिए। भोजन के एक-दो घंटे बाद पेट में वायु, जलन आदि होना नक्सवोमिका में है, तुरंत बाद ऐनाकार्डियम, कैलि बाईक्रोम, नक्स मोस्केटा में है। इसका रोगी दुबला-पतला, चिड़चिड़ा, क्रोधी, स्वभाव का, घी के पदार्थों का शौकीन, उन्हें पचा सकने वाला, शीत-प्रकृति का होता है। नक्स के कार्य को धुर तक पहुंचाने के लिए अंत में सल्फर का प्रयोग करना चाहिए।

कैलि कार्ब 6 – रोगी जो कुछ खाता है, मानो सबका सब वायु में परिणत हो जाता है। थोड़े आहार से भी पेट भारी हो जाता है। पेट में वायु इकट्ठी होती है, पेट फूलता है, पेट में अकड़न का दर्द होता है।

पल्सेटिला 30 – प्यास न होना इसका सर्व-प्रधान लक्षण है। यह भी नक्स की तरह ही पेट के रोगों लिए प्रसिद्ध है। अजीर्ण रोग में इसमें तथा नक्स में समानता भी है, भिन्नता भी है। समानता तो यह है कि इन दोनों में खाने के एकदम बाद तो नहीं, घंटे दो घंटे बाद बोझ, ज़लन आदि होने लगते हैं, खाने के घंटों बाद खाई हुई वस्तु की खट्टी, कड़वी, सड़ांध जैसी डकारें आने लगती हैं। मुंह में खट्टा पानी चढ़ आता है। प्रात:काल उठने पर पेट में भोजन का पत्थर-सा पड़ा अनुभव होता है, किंतु इन दोनों में भिन्नता यह है कि नक्स तो घी आदि के गरिष्ठ पदार्थों को हज़म कर लेता है, पल्स चाहता तो है मछली, गोश्त, पूड़ी-कचौड़ी, लड्डू, पेड़ा, मलाई, बर्फी, तेल तथा घी की पकी हुई वस्तुएं, वसायुक्त खाना, दूध, मक्खन, रबड़ी आदि, किंतु वह उन्हें हजम नहीं कर सकता। इसलिए यदि इन पदार्थों के सेवन से पेट की शिकायत हो (कै, दस्त, पेट दर्द), तो पल्स का प्रयोग करना चाहिए। नक्स चिड़चिड़े, क्रोधी स्वभाव का है, पल्स शांत तथा मृदु स्वभाव का होता है, नक्स अपने काम में बाधा पड़ने पर गुस्सा हो जाता है, पल्स प्राय: रो देता है, रोग का लक्षण कहते-कहते रोता है, नक्स प्राय: दुबला-पतला है, जबकि पल्स प्राय: स्थूल-काय का, नक्स अचार-चटनी, चटपटे पदार्थ तथा घी के पदार्थ पसंद करता है और उन्हें हजम भी कर लेता है और पल्स घी के पदार्थ तथा गरिष्ठ भोजन हज़म नही कर सकता; नक्स शीत-प्रकृति का होता है, पल्स ऊष्ण-प्रकृति का होता है। नक्स ठंडी वायु पसंद नही करता, पल्स गरम हवा पसंद नहीं करता, ठंडी हवा पसंद करता है। औषधि देते हुए इन भेदों को ध्यान में रखना चाहिए।

लाइकोपोडियम 30 – जहां चायना में खाने की इच्छा बिल्कुल नहीं होती, किंतु खाना प्रारंभ करने पर भूख और स्वाभाविक स्वाद लौट आता है, व्यक्ति भरपेट भोजन कर लेता है, वहीं लाइकोपोडियम में इससे उल्टा है। भूख की कमी नहीं होती, किंतु दो-चार कौर खा लेने पर पेट भर गया, ऐसा महसूस होता है। थोड़ा खा लेने पर भी पेट अधिक फूलता है, पेट में गड़-गड़ होने लगती है। डकारें आती हैं, किंतु चायना की तरह डकार आने से आराम नहीं मिलता (कार्बोवेज में डकार आने से आराम मिलता है)। चायना में सारे पेट में-ऊपर-नीचे, कार्बोवेज में पेट के ऊपरी भाग में, लाइकोपोडियम में पेट के निचले भाग में वायु भर जाती है। लाइको में 4 से 8 बजे के बीच सायंकाल वायु का प्रकोप बढ़ जाता है-इस समय किसी भी कष्ट का बढ़ जाना-ज्वर, सिरदर्द आदि इस औषधि का विलक्षण लक्षण हैं, लाइको में कब्ज भी है, किंतु इसके और नक्सवोमिका के कब्ज में भेद है। नक्स में आंतों में मल को धकेलकर गुदा की तरफ ले जाने की शक्ति कम हो जाती है, इसलिए नक्स में एक बार शौच जाने से काम नहीं बनता, दो-चार बार शौच जाना पड़ता है। लाइको में गुदा में सिकुड़न हो जाती है, अतः मल-त्याग न होने के कारण कब्ज हो जाता है। अजीर्ण के प्रकरण में यह स्मरण रखना चाहिए कि पेट का अफारा, कब्ज आदि सब कष्ट भूख न लगने के मुख्य कारण हैं, इसलिए अजीर्ण की औषधि का चुनाव करते समय अफारे और कब्ज पर विशेष ध्यान देना चाहिए।

एण्टिम क्रूड 3, 6 – अजीर्ण रोगों में जीभ पर सफेद मैल के जमने का लक्षण अनेक औषधियों में है, किंतु दूध की तरह सफेद तथा गाढ़ा मैल जमना इसी औषधि में है। यह लक्षण अन्य भी किसी रोग में हो, तो यही औषधि है। भूख मर जाना, अपच, बुसी-बुसी-सी डकार आना – इन लक्षणों के साथ दुधैली जीभ होना इसके लक्षण हैं। गरम मौसम में अनियमित भोजन से कुछ गाढ़ा, कुछ पतला दस्त आने लगता है। इस अवस्था में भी यह औषधि ब्रायोनिया की तरह लाभदायक है। रोगी के पेट की शिकायतें, चर्बीदार भारी खाना, हलुवा, मीठी चीजें, खटाई खासकर सिरका, खट्टी शराब, मोटी रोटी आदि खाने से हो जाती हैं, पेट खराब होकर दस्त आने लगते हैं। गरम मौसम में इस तरह की बदहज़मी हो जाया करती है। बच्चा दूध पीकर जमे हुए दूध की कै कर देता है, किंतु पुनः दूध पीने से इंकार कर देता है। उसके बाद उसका मिजाज बहुत चिड़चिड़ा हो जाता है। इथुजा में भी बच्चा दूध पीकर जमे हुए दूध की कै करता है, किंतु फिर झट से दूध पीने भी लगता है। इथूजा में जीभ के दुधैल होने का भी लक्षण नहीं है। कैल्केरिया कार्ब में जमे हुए दही की तरह दूध के वमन का लक्षण है, लेकिन वह कै करने के बाद दूध पीना नहीं चाहता, उसके शरीर से खट्टी बू आती है, सिर पर पसीना आता है, जो एण्टिम क्रूड तथा इथूजा में नहीं है।

ऐनाकार्डियम 30, 200 – इस औषधि के रोगी को नर्वस डिस्पेप्सिया (अजीर्ण) होता है, रोग के लक्षण भोजन करने से कम हो जाते हैं। खाना हजम हो जाने के बाद फिर लक्षण प्रकट हो जाते हैं। पेट खाली-खाली लगता है, इसलिए रोगी खाने के लिए बेताब होता है। इस बेताबी में जल्दी-जल्दी पेट में कुछ ने कुछ डालता जाता है।

अर्जेन्टम नाइट्रिकम 30 – अधिक मीठा खाने से पेट की शिकायतें – अपच, पेट में वायु भर जाना, हरे दस्त आने लगना, खट्टी डकारें आना, इस औषधि को पहचानने का उपाय यही है कि यदि रोगी के लक्षण मीठा अधिक खाने के कारण हों, तो इस औषधि का व्यवहार करना होगा। दूध पीते बच्चे की माता यदि मीठा अधिक खाती हो, तो उसके बच्चे के पेट की शिकायतों में-पेट में वायु, वायु के कारण दर्द, हरे दस्त-यही औषधि उपयोगी है। पेट में जब वायु गड़गड़ाती है, निकल नहीं पाती, वायु से पेट ऐसे फूल जाता है मानों फट जाएगा, तब भी इस औषधि की तरफ ध्यान जाना चाहिए। इस वायु से पेट में दर्द भी हो जाता है। दर्द पेट में एक स्थान से उठकर चारों तरफ फैल जाता है। यह दर्द धीरे-धीरे उठता है और धीरे-धीरे शांत हो जाता है। प्राय: आइसक्रीम आदि ठंडी वस्तुओं के खाने से यह दर्द होता है।

सल्फर 30 – पेट की शिकायतों में यह अत्यंत उपयोगी औषधि है। जो रोगी प्रायः (स्त्रियां) पेट बढ़ जाने की शिकायतें किया करते हैं, कहते है कि पेट तथा जिगर के आस-पास का स्थल तना हुआ-सा रहता है, थोड़ा-सा खाने से पेट भर जाता और तन जाता है, पेट के इस भारी बोझ से ही बवासीर के मस्से उभर आते हैं, कभी कब्ज तो कभी दस्त आने लगते हैं, ऐसी हालत में यह अत्युतम औषध है। सल्फर का रोगी दूध भी नहीं पचा सकता। यदि दूध पीने का प्रयत्न करता है, तो उल्टी आ जाती है। इस सब लक्षणों के साथ रोगी दोपहर 11-12 बजे के बीच पेट में खाली-खालीपन महसूस करता है, मानो पेट अंदर की ओर धंसता जा रहा है-भले ही वह सुबह का नाश्ता कर चुका हो, किंतु यदि उसे दोपहर का खाना खाने के समय पर न मिले, तो वह बेचैन हो जाता है, ठहर नहीं सकता। दोपहर 10-11 बजे के पहले भूख लगना और उस समय खाने से आराम महसूस करना नैट्रम कार्ब का लक्षण है। सल्फर का लक्षण यह है कि जब 11 बजे उसे भूख लगती है और वह खा लेता है, तब उसे आराम तो मिलता है, किंतु साथ ही उसे ऐसा महसूस होने लगता है कि उसका पेट फूलता जा रहा है, सल्फर के पेट के लक्षण प्राय: सभी नक्सवोमिक में भी पाए जाते हैं, इसलिए इन लक्षणों में पहले नक्सवोमिका देनी चाहिए, उसके बाद बचे-खुचे लक्षणों को निपटा देने के लिए सल्फर का प्रयोग करना चाहिए।

मिक्रोमेरिया 30 – पेट फूलता है, पेट में शूल की तरह दर्द होता है, पाकस्थली और आंत में भयानक दर्द होता है, साथ ही मिचली आती है।

एबिस नायग्रा 6 – ऐसा मालूम होता है मानो पाकस्थली में एक कड़ा पदार्थ जमा हुआ है या छाती में जैसे कोई चीज अटकी हुई है। रोगी इसी के लिए खाँसता है, लेकिन खांसने पर कुछ भी नहीं निकलता। सवेरे के समय बिल्कुल भी भूख नहीं रहती, लेकिन तीसरे पहर जोरों की भूख लगती है।

कैल्केरिया कार्ब 6, 30 – अस्वाभाविक भूख, जीभ सफेद लेप से ढकी हुई, कलेजे में जलन, मुंह में पानी भर आना, दूध पीने पर बिल्कुल ही सहन नहीं होना, ऊपरी पेट फूलना, तलपेट फूलना और कड़ा रहना, सफेद रंग का बदबूदार या खट्टी बदबू का मल होना।

ऐसिड कार्बोलिक 30 – ऐक्युट-डिस्पेप्सिया (नया अजीर्ण या मंदाग्नि), कै, मिचली, पेट का फूलना, बहुत सड़ांध जैसा बदबूदार मल आना।

आर्जेण्ट नाइट्रिकम 200 – कलेजा जलना, जरा-सी देर में ही पेट फूल जाना, पाकस्थली में बहुत अम्ल इकट्ठा होना, पाकस्थली की गड़बड़ी के कारण हृत्पिंड की क्रिया में गड़बड़ी।

बिस्मथ 3 – डकार और जलन भरा दर्द, साथ ही ऐसा मालूम होना मानो पाकस्थली में एक कड़ा ढेले की तरह पदार्थ अटका हुआ है, यह दर्द पाकस्थली से मेरुदंड में चला जाता है।

ब्रायोनिया 6, 30 – खाद्य-द्रव्य मानो गोला बनकर पाकस्थली में जा बैठा हो, इसके साथ पेट में न सहन होने वाला दर्द, जो दर्द दबाने से बढ़ता है।

नक्स मोस्केटा 6 – कुछ भी खाते ही पेट में गड़बड़ी मालूम होना, कलेजे में जलन, खट्टी डकार, खाए हुए का पेट में इकट्ठा होने का एहसास होना।

एनाकार्डियम 3 – भोजन के बाद तुरंत ही रोगी के सब कष्ट घट जाते हैं, किंतु कुछ ही देर के बाद पुनः उभर आते हैं।

आर्सेनिक 3x, 6 – पाकस्थली में बहुत जलन मालूम होना, बहुत गरम पानी पीने पर घट जाना, बर्फ खाने के कारण अजीर्ण रोग होने पर।

सिपिया 6 – पुराना अजीर्ण रोग (विशेषत: जरायु का दोष रहने पर), मलद्वार में भार, खट्टा या तीता स्वाद, खटाई, अचार आदि खाने की इच्छा, शरीर मलिन और पीला ।

फास्फोरस 30 – पुराने अजीर्ण रोग में खट्टी डकारें या खट्टी कै; बहुत भूख, पेट फूलना, जीभ मैल चढ़ी, पेट में जलन मालूम होना, पानी पीने के बाद जलन का घटना, पानी की कै हो जाने के लक्षण में इस औषध का प्रयोग होता है।

प्लम्बम 6, 200 – सर्दी लगने की वजह से अग्निमांद्य, पेट में दबाव मालूम होना, रोगी कड़े पदार्थ नहीं खा सकता, पेट में दर्द और कब्ज़ रहने पर इससे लाभ होता है।

थूजा 6, 30 – अधिक मात्रा में चाय पीने से पैदा हुए उपसर्ग रहने पर भूख न लगना, खाने के बाद ही पेट में दर्द, पेट में वायु होना, ऊपरी पेट में दर्द, प्यास, आलू, मांस और प्याज से अरुचि में यह औषध लाभप्रद है।

होम्योपैथी में किसी भी रोग की कोई निर्दिष्ट पेटेंट औषधि नहीं है। रोग के लक्षण के साथ किसी भी औषधि के लक्षण मिलने पर उसी औषधि का उस रोग में व्यवहार होता है।

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