निमोनिया का होम्योपैथिक इलाज [ Homeopathic Medicine For Pneumonia ]

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निमोनिया का अर्थ ‘फुफ्फुस प्रदाह’ है। छाती के दोनों पार्श्व में श्वास-प्रश्वास के जो दो यंत्र हैं, उनको फुफ्फुस (Lungs) कहते हैं। फुफ्फुस में श्वास वायु रहती है। श्वास-नली के बीच से वायु आया-जाया करती है, अर्थात वायु श्वास के द्वारा फुफ्फुस में आती है और प्रश्वास के द्वारा फुफ्फुस से बाहर निकल जाती है। यही फेफड़ों का स्वाभाविक कार्य है। फुफ्फुस अपनी स्वाभाविक अवस्था में स्पंज की तरह नरम रहता है, लेकिन निमोनिया होने पर वह कड़ा और ठोस हो जाता है। एलोपैथिक मत से एक प्रकार के कीटाणु (निमोकक्काई) ही इस रोग के मुख्य कारण हैं। ज्वर के बाद फुफ्फुस की कमजोरी, सर्दी लगना, फेफड़े में चोट लगना, समीप का कोई यंत्र प्रदाहित होकर वह प्रदाह फैलकर फुफ्फुस को अपनी लपेट में ले लेता है, तब निमोनिया हो जाता है। निमोनिया में कमी एक फुफ्फुस या कभी दोनों फुफ्फुसों में प्रदाह हो जाता है। अवस्था के अनुसार निमोनिया को हमेशा तीन श्रेणियां में विभक्त किया जाता है: –

सैकेण्डरी निमोनिया – यह किसी दूसरे रोग के उपसर्ग रूप में दिखाई पड़ता है। दूसरा रोग ज्वर (टाइफॉयड) हो सकता है या होता है।

लोब्यूलर, कैटेरल निमोनिया – छोटी माता और इन्फ्लुएन्जा आदि में इसके लक्षण देखे जा सकते हैं। इसमें दोनों या एक ओर के फुफ्फुस के लोब के कुछ अंश में प्रदाह होता है।

लोबर निमोनिया – इसमें छाती के किसी भी अंश के एक फुफ्फुस के किसी भी अंश या समस्त अंशों का प्रदाह होता है। एक ही साथ दोनों फुफ्फुसों पर रोग का आक्रमण होने पर उसको ‘डबल न्युमोनिया’ और एक ही फुफ्फुस पर रोग का आक्रमण होने पर उसे ‘सिंगल न्युमोनिया’ कहते हैं।

निमोनिया में ज्वर पहले 102-103, इसके बाद 104 डिग्री तक चढ़ जाता है और अंत में धीरे-धीरे घटता जाता है। इसमें नाड़ी की गति बहुत तेज रहती है (1 मिनट में 120 से 160 बार), श्वास-प्रश्वास भी रोगी जल्दी-जल्दी लेता और छोड़ता है (प्रति मिनट 40 से 80 बार तक), रोग में धीरे-धीरे और बहुत देर से आराम होता है। ‘लोबर निमोनिया’ की अपेक्षा इसमें मृत्यु-संख्या विशेषकर बच्चा होने पर अधिक होती है। अधिकांश स्थानों में फेफड़े का पक्षाघात हो जाता है। बच्चा खासकर कफ नहीं निकाल सकता है, इसलिए मृत्यु तक हो जाती है।

निमोनिया में एकाएक कंपन देकर ज्वर आता है। दस-पन्द्रह मिनट या आधा घंटा कांपने के बाद ज्वर तेजी से बढ़ना आरंभ होता है। चौबीस घंटे बाद एक या दोनों ओर दर्द होता है, छींकने और खांसने पर दर्द बढ़ता है। कष्ट देने वाली सूखी खांसी आती है, श्वास-प्रश्वास रोगी जल्दी-जल्दी लेता है, छाती के दर्द के कारण श्वास लेने और छोड़ने में कष्ट होता है। ज्वर सदैव बना ही रहता है, तो भी संध्या की अपेक्षा प्रातः के समय थोड़ा कम रहता है। रोगी रोगहीन स्थान को दबाकर या चित्त होकर सोता है। हर बार श्वास लेने के समय नाक के छिद्र फूल उठते हैं। जिस ओर के फुफ्फुस पर रोग का आक्रमण होता है, उस तरफ चेहरा व आखें लाल हो जाती हैं। खांसी के कष्ट के कारण रोगी छाती को हाथ से दबाए रखता हैं। खांसने के समय थोड़ा लसदार गोंद की तरह बलगम निकलता है, कभी-कभी उसके साथ रक्त भी मिला रहता है।

विशेष लक्षण – ज्वर प्रातः 103-104 डिग्री सुबह और शाम को 104-105 डिग्री रहता है। ज्वर सात दिन ही रहता है, अन्यथा पांच-छह दिन से लेकर आठ-नौ दिन के भीतर ही ज्वर उतर जाता है, इसकी निमोनिया क्राइसिस (Pneumonia Crisis) अर्थात खतरे का समय कहते हैं। गर्मी में 95-96 डिग्री तक ज्वर उतर जाना बहुत ही खतरे की बात है। अचानक व बहुत तेजी से ज्वर उतरने पर बहुत बार हार्टफेल तक हो जाता है। जवानी के समय नाड़ी का स्पंदन एक मिनट में प्राय: 70-75 बार रहता है, श्वास-प्रश्वास 17-18 बाहर होता है (1 मिनट घड़ी देखकर श्वास लेने के समय पेट के ऊपर हाथ रखकर, पेट का उतार-चढ़ाव गिनकर देखने से श्वास-प्रश्वास की गणना की जा सकती है), इससे मालूम होता है कि नाड़ी 4 बार स्पंदित होने पर श्वास-प्रश्वास 1 बार होता है, यही साधारण और बंधा नियम है, लेकिन निमोनिया होने पर नाड़ी के दो बार के स्पंदन में श्वास-प्रश्वास 1 बार होता है। निमोनिया में यदि नाड़ी 120 बार स्पंदित हो, तो उसमें श्वास-प्रश्वास 50-60 बार होगा। यह संकेत भी निमोनिया रोग के निर्वाचन का एक सहज उपाय है।

निमोनिया में निम्नलिखित तीन अवस्थाएं होती हैं –

प्रथम अवस्था – यह ‘शोथावस्था” (Congestive Stage) है, जिसमें फेफड़े में शोथ (Congestion) हो जाती है। यदि आला लगाकर सुना जाए, तो श्वास लेते हुए रोगी के फेफड़े में शोथ न होने पर तो कोई आवाज नहीं सुनाई देती, किंतु शोथ होने पर कर-कर-सी सुनाई देती है, ज्वर बढ़ आता है। रोग का आक्रमण प्राय: दाएं फेफड़े के नीचे के हिस्से पर होता है, बायां फेफड़ा भी आक्रांत हो सकता है, दोनों फेफड़े भी आक्रांत हो सकते हैं। शोथ की यह अवस्था कुछ घंटे ही रहती है।

एकोनाइट 3x – बहुत से चिकित्सकों के साथ ही डॉ० जहार का मत है कि आरंभ में यह औषधि दी जानी चाहिए। इस अवस्था में रोगी को ज्वर होता है, फेफड़ों को जांचने से ‘कर-कर’ शब्द सुनाई देता है, बिना जांचे भी जब रोगी श्वास लेता है, तब यह शब्द सुनाई पड़ता है, खांसी आती है। इस अवस्था में आधे-आधे घंटे बाद इस औषध को देने से रोग का वेग घट जाता है। इस पहली अवस्था में ज्वर आने से पहले रोगी ठंडक महसूस करता है, फिर तीव्र ज्वर हो जाता है, कभी-कभी थूक में रक्त का अंश दिखलाई देता है, रोगी को बहुत घबराहट होती है, वह बेचैनी महसूस करता है।

सल्फर 30 – डॉ० ज्हार के मतानुसार यदि एकोनाइट देने के बाद रोगी को तीन-चार घंटे में लाभ होता न दिखाई दे, तो सल्फर 30 का प्रयोग करना चाहिए और हर तीसरे घंटे, कम-से-कम चौबीस घंटे तक औषध देनी चाहिए। यदि इससे लाभ होता दिखाई दे, तो इसके बाद भी इसे देते रहना चाहिए।

फास्फोरस 6, 30 – बराबर कष्टकर खांसी, वक्षस्थल में तेज दर्द, पीला या हरे रंग का या रक्त मिला श्लेष्मा का स्राव, नाड़ी द्रुत: केश धंसने पर जैसी आवाज होती है, फेफड़े से वैसी ही आवाज वक्ष-परीक्षा के समय आती है। यह औषधि बच्चों के ब्रांको-निमोनिया में भी अति लाभदायक है।

द्वितीय अवस्था – रोग की दूसरी अवस्था आने पर फेफड़ों में इतना रक्त भर जाता है कि शोथ में से स्राव आने लगता है, कीटाणु तथा मृत-तंतु (WasteTissues) इतने जमा हो जाते हैं कि फेफड़ा कड़ा पड़ जाता है। यदि इसे पानी में डाला जा सके, तो इस कड़ेपन के कारण वह पानी में डूब जाए। यह दूसरी स्थूलावस्था (Hepatization) कहलाती है। इसे यदि देखा जा सके तो यह जिगर की शक्ल का लाल-लाल हो जाता है। अंग्रेजी में ‘हेपर’ (Hepar) लिवर (जिगर) को कहते हैं, उसी शब्द से ‘हेपेटाइजेशन’ बना है। इस दूसरी अवस्था को स्प्लेनाइजेशन भी कहते हैं, क्योंकि इस अवस्था में यह तिल्ली (Spleen) की-सी शक्ल का कड़ा हो जाता है। यह अवस्था 4 से 18 दिन तक रह सकती है।

ब्रायोनिया 1x, 200 – शोथ की अवस्था के बाद यदि रोग द्वितीयावस्था में पहुंच जाए, फेफड़ों में स्राव जमा होने लगे, तब श्वास लेने में कष्ट बढ़ जाएगा और जिस फेफड़े में रोग होगा, उस तरफ लेटने से दर्द में राहत मिलेगी, क्योंकि वह सब तरफ दब जाने की वजह से उसमें हरकत नहीं होगी। यह लक्षण ब्रायोनिया का है, इसलिए फेफड़े में स्राव जमा हो जाने की इस रोग की द्वितीयावस्था में जब स्राव जमा हो जाने के कारण फेफड़े की दोनों परतें श्वास लेने पर आपस में रगड़ नहीं खातों, तब ब्रायोनिया से लाभ होता है। खांसी अब भी कड़ी होती है, ढीली नहीं होती। खांसते हुए दर्द होता है, श्वास भारी हो जाती है, रोगी शांत-मुद्रा में बिना हिले-डुले पड़ा रहना चाहता है। पहले 1x दो-दो घंटे बाद देते रहना चाहिए, फिर लाभ दिखने पर 200 की एक मात्रा देनी चाहिए।

ब्रायोनिया तथा एण्टिम टार्ट 6x – इस औषधि का लक्षण फेफड़े में कफ भर जाने के कारण, उसमें घड़घड़ की आवाज का होना है। यदि फेफड़े में से इस प्रकार की आवाज आने लगे और यह आशंका हो कि फेफड़े का पक्षाघात हो जाएगा, तो ब्रायोनिया और एण्टिम टार्ट को एक-दूसरे के बाद देना शुरू कर देना चाहिए। यदि एण्टिम टार्ट देने से खुश्क कफ जो घड़घड़ाता है ढीला हो जाए, किंतु न निकले, तो इपिकाक देने से कफ निकलने लगता है।

ब्रायोनिया तथा फास्फोरस 30 – डॉ० टेसियर का कथन है कि द्वितीयावस्था में ब्रायोनिया को ही निर्बाध रूप में दिया ही जाना चाहिए, किंतु रोगी की शक्ति को बढ़ाने के लिए द्वितीयावस्था में इन दोनों में से एक औषधि को प्रात:काल और दूसरी को सायंकाल देना चाहिए। फ्लीशमैन का कथन है कि निमोनिया में फास्फोरस स्पेसिफिक औषधि है। लिलिएंथल इसे हृदय तथा फेफड़ों का टॉनिक कहते हैं।

आयोडाइन 1, 2, 3 – इस औषध को निम्न शक्ति में घंटे-घंटे बाद देने पर फेफड़े की स्थूलावस्था कम हो जाती है, श्वास का भारीपन कम हो जाता है और कफ आसानी से निकलने लगता है, ज्वर भी नीचे चला जाता है।

सल्फर 30 – रोग की द्वितीयावस्था तथा प्रथमावस्थाओं पर काबू पाने में इस औषधि का प्रयोग बहुत गुणकारी होता है। बहुत से चिकित्सकों का भी यह मत है कि जब फेफड़ों में निमोनिया की द्वितीयावस्था का कड़ापन आ जाए, तब कफ को जज्ब करने में सहायता पहुंचाने और फेफड़ों के कफ से साफ हो जाने में इससे बड़ी सहायता मिलती है। कभी-कभी निमोनिया के बाद फेफड़ों में कड़े-स्थल रह जाते हैं, उन्हें हल कर देने में यह औषधि बहुत सहायक है।

तृतीय अवस्था – इसमें स्राव जज्ब होने लगता है और फेफड़ा फिर काम करने लगता है। यदि स्राव जज्ब न हो, तो रोगी मर जाता है। कभी-कभी निमोनिया से प्लुरिसी भी हो जाती है।

फास्फोरस 30 – डॉ० फैरिंग्टन का कथन है कि यह औषध उस अवस्था में लाभप्रद है, जब प्रथमावस्था के बाद द्वितीयावस्था शुरू ही होती है – हो नहीं जाती – यदि द्वितीयावस्था स्थूलावस्था में परिणत हो जाए, तब फास्फोरस का क्षेत्र नहीं रहता; या इसका क्षेत्र तब आता है, जब द्वितीयावस्था समाप्त होकर तृतीयावस्था-परिपाक की अवस्था-कफ के फेफड़े में से निकल जाने या हल हो जाने की अवस्था आ जाती है। निमोनिया की द्वितीयावस्था में यह औषध निर्दिष्ट नहीं है। यदि निमोनिया के बीच में टाइफायड के लक्षण प्रकट होने लगें, तब यह औषध देने से लाभ होता है।

हिपर सल्फर 30 – डॉ० ड्यूई के कथनानुसार फास्फोरस से जब कफ का कड़ापन दूर हो जाए, कफ ढीला पड़ जाए, तब फास्फोरस के बाद इस औषध को देने से कफ का कष्ट चला जाता है। इस दृष्टि से डॉ० फैरिंग्टन का यह कथन ठीक ही है कि हिपर सल्फर का काम निमोनिया के उपचार के अंतिम दिनों में आता है।

सल्फर 30 – यह औषधि निमोनिया की प्रथम, द्वितीय तथा तृतीय-तीनों अवस्थाओं में काम आती है और तीनों अवस्थाओं में लाभ करती है।

आयोडाइन 1, 2, 3 – यदि निमोनिया की तृतीयावस्था में फेफड़ों में कफ के जज्ब होने के बावजूद कफ बनता चला जाए, ज्वर बना रहे, रोगी का शरीर कृश होता चला जाए, तो यह औषध दी जानी चाहिए। कृशता इसका प्रकृतिगत लक्षण है।

टयुबर्क्युलीनम 200 – शरीर में इस रोग के आने का यदि कोई वंशज कारण रहा हो, तो इस औषध की एक मात्रा सप्ताह में एक बार दी जा सकती है।

निमोनिया के अन्य उपद्रवों की औषधियां निम्नलिखित हैं:-

सेनेगा 30 – यदि निमोनिया के साथ प्लुरिसी भी हो जाए, तब यह औषध उपयोगी है। छाती पर ऐसा बोझ पड़ा महसूस होता है मानो फेफड़े पीछे-पीछे रीढ़ की हड्डी के साथ जा लगे हैं। शोथावस्था के बाद बाईं छाती में जगह-जगह फोड़े के से स्थल, रोगी खांसता है, खांसते-खांसते खांसी का अंत छींक में होता है।

स्ट्रोफेन्थम (मूल-अर्क) 6x – यदि निमोनिया में हृदय की दुर्बलता के कारण हार्ट फेल होने का खतरा हो जाए। यह औषधि मिस्टोलिक प्रेशर को बढ़ा देती है, हार्ट मसल को शक्ति देती है। यदि रोग उग्र रूप धारण कर ले, तो दिन में 5 से 10 बूंद इस औषध की देने से हृदय को बल मिल जाता है।

रैननक्युलस 30 – यदि निमोनिया के बाद छाती में किन्हीं-किन्हीं स्थानों में दुखन हो, तो इस औषध से लाभ हो जाता है।

कैलि कार्ब 6x, 30, 200 – इस औषधि का भी निमोनिया में उपयोग होता है। इसके तथा ब्रायोनिया के लक्षणों में भेद यह है कि ब्रायोनिया में तो श्वास लेने में फेफड़े में दर्द होता है, किंतु इसमें दर्द का श्वास के साथ संबंध नहीं है। श्वास लेने में इसमें दर्द भी होता है, किंतु स्वतंत्र रूप से भी फेफड़े में दर्द होता है। यह औषध खास तौर पर दाएं फेफड़े के नीचे के हिस्से पर आक्रमण करती है, फास्फोरस तथा मर्क सोल में भी ऐसा ही है। ब्रायोनिया का रोगी या तो दर्द वाले पासे पर लेटेगा या चित्त लेटेगा, किंतु कैलि कार्ब का रोगी दाईं तरफ नहीं लेट सकेगा, क्योंकि उसी ओर उस पर रोग आक्रमण करता है। बच्चों के निमोनिया में प्रायः इस औषध के लक्षण पाए जाते हैं। फेफड़े में कफ भरा जम गया होता है। एण्टिम टार्ट की तरह फेफड़ा घड़घड़ करता है। इसका विशिष्ट लक्षण इसका समय है। रोग 3 बजे या 5 बजे सवेरे उग्र रूप धारण करता है।

नैट्रम सल्फ 12x – यह औषधि बाएं फेफड़े के नीचे के हिस्से पर (कैलि कार्ब, फॉस, मर्क सोल से उल्टा) निमोनिया होने पर दी जाती है। इसमें दमे के साथ निमोनिया पाया जाता है – बच्चों के तर दमा में इससे लाभ पहुंचता है। इस औषधि के रोग का उग्र रूप धारण करने का समय 4 से 5 बजे प्रातः काल है। रोग का आक्रमण प्रायः सीलन वाले मकान में रहने से या नम हवा से होता है।

लाइकोपोडियम 30 – ऐसा निमोनिया जो बिगड़ गया हो, फेफड़ा कफ से भरा हो, अंदरूनी तकलीफ की वजह से रोगी के चेहरे तथा माथे पर सिकुड़न पड़ जाए, नाक के दोनों नथुने कष्ट से श्वास लेने के लिए पंखे की तरह हिलते हों। (एण्टिम टार्ट में भी यह लक्षण है), 4 से 8 बजे शाम को रोग बढ़ जाता हो, तब यह औषध देनी चाहिए। फेफड़े में कफ जम जाता है, जो निमोनिया की द्वितीयावस्था है। इस अवस्था में प्रायः उक्त लक्षण प्रकट होते हैं। ऐसी हालत में लाइकोपोडियम देने से कई रोगियों के प्राण बच गए हैं।

फेरम फॉस 12, 30 – सब तरह के प्रदाह की प्रथम अवस्था में एकोनाइट की तरह इस औषधि से लाभ होता है और दुर्बल व रक्तहीन व्यक्तियों के रोग में अधिक लाभदायक होता है। इसके ज्वर में एकोनाइट, जेलसीमियम और फुफ्फुस के रोग में, बहुत कुछ फास्फोरस और फेरम की मध्यवर्ती औषधियां दी जाती हैं, फेफड़ों में रक्त की अधिकता, विशेषकर रोग दाहिने फेफड़े से पहले आरंभ होकर एकाएक बाएं फेफड़े पर जा पहुंचता है, ऐसी अवस्था में इससे विशेष लाभ होता है।

आर्सेनिक 30, 200 – रोग की बढ़ी हुई अवस्था में और रोगी बहुत कमजोर हो, तो यह औषध लाभदायक है। इसमें दाहिने फेफड़े के ऊपरी अंश पर रोग का आक्रमण अधिक होता है, छाती में खोंचा मारने की तरह दर्द रहता है। फेफड़े में फोड़ा, सड़न आदि होने पर इससे लाभ होता है।

आयोडम 6, 30 – यह भी हेपाटाइजेशन-स्टेज (फेफड़े की यकृत-भाव प्राप्ति की दशा) की एक अच्छी औषध है, पर इसमें एकोनाइट की तरह उद्वेग, बेचैनी और ब्रायोनिया की तरह सूई गड़ने की तरह तेज दर्द नहीं रहता है, लेकिन इन दोनों औषधों में ही तीव्र ज्वर रहता है। आयोडम स्क्रोफूला (गंडमाला) धातु के व्यक्तियों के लिए अधिक लाभदायक है।

मर्क्युरियस 6, 30 – ढीला कफ, इसके समूचे उपसर्ग रात में और दाहिने पार्श्व में सीने पर बढ़ते हैं, रात में बहुत ज्यादा लसदार पसीना निकलता है। कामला और पित्त के लक्षण भी रहते हैं। ज्वर बहुत ज्यादा तेज न होने पर भी थोड़ा-थोड़ा बना रहता है। श्वास-कृच्छता रहने पर वह अधिक समय तक रहती है। जिह्वा पीले मैल से ढंकी रहती है। मूत्र कम मात्रा में होता है।

चेलिडोनियम 6, 30 – बच्चे और मद्यपान करने वालों के निमोनिया में यह औषध अधिक लाभदायक है। इसके समस्त रोग दाहिनी ओर आक्रमण-करते हैं। रोगी का गला घड़घड़ करता है, रोगी खांसता है, लेकिन चाहकर भी कफ नहीं निकाल सकता। यकृत रोग वाले व्यक्तियों के रोग में दाहिने कंधे (स्कैपुला) की हड्डी में दर्द रहने पर इससे बहुत लाभ होता है। छाती में दाहिनी ओर कफ घड़घड़ाया करता है।

क्यूप्रम 3 – पक्षाघात होने का डर रहने पर यह औषध दी जाती है।

कार्बोवेज 30 – रोगी का रंग हरा, हाथ-पैर आदि अंग-प्रत्यंग ठंडे तथा समूचे शरीर में ठंडा पसीना, रोगी मुंह के पास जोर से हवा करने को कहता है। हवा से रोग घटता है।

बैसिलिनम 30 – क्षयकास की तरह फेफड़े का प्रदाह, कफ के साथ रक्त आदि लक्षण रहने पर (चुनी हुई औषध के साथ सप्ताह में एक बार सेवन कराई जानी चाहिए)।

एकालिफा इण्डिका 3 – कफ चमकीला, उसके साथ लाल रंग का रक्त निकलना, खांसी का वेग बहुत अधिक।

हैमामेलिस 1x – कफ के साथ कालिमा लिए रक्त जाना, थक्का-थक्का रक्त निकलता है।

मिलिफोलियम 1x – खांसी के साथ कफ और लाल झाग भरा रक्त निकलता है।

विरेट्रम-विर 1x – (प्रथमावस्था में जब फेफड़े में रक्त-संचय होता है) सीने में जोर का श्वास-प्रश्वास और सूखी खांसी, नाड़ी पूर्ण, कठिन और उछलती हुई, कपाल में ठंडा पसीना ।

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