संवेदनात्मक पक्षाघात का होम्योपैथिक इलाज [ Homeopathic Medicine For Sensory Paralysis ]

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मेरुदंड, मस्तिष्क और स्नायु के जो सब रोग होते हैं, उनके वास्तविक कारण का आज तक कोई निर्णय नहीं कर सका है। इनकी रोगोत्पत्ति का कारण-निर्णय बहुत ही कठिन है। इस रोग से कठिनता से ही मुक्ति मिलती है। इस रोग में सर्वप्रथम पैर और जांघ की पेशियों पर रोग का आक्रमण होता है, तदनंतर हाथ की पेशियों पर यह हुआ करता है। किसी-किसी होम्योपैथ के मतानुसार पहले कमर की मेरुमज्जा रोगाक्रांत होती है और फिर वह क्रमशः ऊपर की ओर माथे के पिछले भाग तक फैल जाता है। इसमें किसी भी पेशी का पक्षाघात नहीं होता, लेकिन पेशी की क्रिया बहुत कुछ नष्ट हो जाती है।

मेरुमज्जा (स्पाइन) के पीछे की तरफ स्नायुशूल शुष्क और छोटा हो जाता है, इसलिए पेशियों के ऊपर स्नायु की नियमित शक्ति का हास हो जाता है और इसी कारण स्नायुओं का संचालन नियमित रूप-से नहीं होता। यह रोग धीरे-धीरे प्रकट होता है। इसके प्रधान लक्षण तीन हैं-(1) दर्द, (2) चलने में अशक्तता और (3) नेत्र-रोग।

दर्द — रोग के आरंभ में रोगी को पहले हाथ या पैरों की पेशी में विद्युत-लहर की तरह एक प्रकार का दर्द महसूस होता है। यह दर्द बार-बार होता है, किंतु थोड़ी देर तक ही रहता है। किसी-किसी को दर्द अधिक और अत्यंत कष्टदायक होता है। परिश्रम करने से तथा रात्रिकाल में दर्दै बहुत बढ़ जाता है।

चलने में अशक्तता– — इस स्थिति में रोगी सीधा होकर खड़ा नहीं रह सकता, और इच्छानुसार सीधा चल भी नहीं पाता है। जब चलता है, तो शराबियों की तरह आड़ा-तिरछा डगमगाता हुआ चलता है। वह चाहकर भी स्थिर होकर खड़ा नहीं रह सकता। चलते समय वह घूम नहीं सकता। उसके पैरों की स्पर्श-शक्ति लोप हो जाती है। चिकौटी काटने पर उसे इसका एहसास नहीं होता। कब्ज रहता है और मूत्राशय का आंशिक पक्षाघात हो जाता है, चलने की शक्ति नहीं रहती; जिह्वा लड़खड़ाती है, कोई चीज निगलने में और श्वास-प्रश्वास में कष्ट होता है। लेटे रहने के कारण पीठ या कमर में घाव हो जाता है और रोगी मृत्यु-द्वार पर पहुंच जाता है।

नेत्र — रोग-रोगी के देखने की शक्ति लोप हो जाती है या एकदम से घट जाती है, उसे बहुत कम दिखने लगता है। कभी-कभी आंखें मेंड़ी हो जाती हैं, आंख की पुतलियां सिकुड़ जाती हैं और रोगी अंधा तक हो जाता है। इसमें विचित्र बात यह है कि जब रोगी को दिखना बंद हो जाता है, तब उसके चलने की क्षमता लौट आती है।

उपर्युक्त लक्षणों के अतिरिक्त भी कुछ लक्षण दिखाई पड़ते हैं, जैसे श्रवण-शक्ति का ह्रास, वमन, अजीर्ण, भूख न लगना आदि। जिन कारणों से मेरुदंड (रीढ़) की शक्ति घटती है, मेरुमज्जा का पोषण न होकर विकृति होती है; संभवतः वे ही इस रोग के वास्तविक कारण हैं। रीढ़ पर गहरी चोट, बहुत अधिक शुक्रक्षय, कंठमाला इत्यादि कारणों से भी यह रोग हो जाता है। बहुत से चिकित्सकों का मत है कि नब्बे प्रतिशत यह रोग सिफिलिस (उपदंश) के कारण उत्पन्न होता है। यह रोग प्रातः आरोग्य नहीं होता, किंतु रोगी अधिक समय तक जीवित रहता है। कभी-कभी इस रोग में मस्तिष्कसंबंधी रोग का भ्रम हो जाता है।

इस रोग में मेरुदंड के भीतर नियमित रूप से रक्त-संचालन नहीं होता, इसके लिए मालिश यानी अच्छी तरह शरीर को रगड़-रगड़कर दबाना चाहिए। पीठ की पेशी में मालिश करने से रक्त-संचालन में सहायता पहुंचती है, किसी स्थान पर रक्त जम जाए, तो वह ठीक हो जाता है। निद्रा अच्छी आती है। इस रोग में रोगी को चित्त सोने देना मना है, क्योंकि इससे रक्त की अधिकता होती है। रोग के आरंभिक-काल में जितने दिन दर्द और कष्ट रहता है, उतने दिन शारीरिक परिश्रम करना मना है। दर्द न रहने पर भी रोग की जीर्णावस्था में, जिसमें थकांवट न आने पाए, इस तरह, का परिश्रम न करना चाहिए, ताकि रोगी अपना घर-गृहस्थी का कामकाज सुरुचिपूर्ण कर सके। चूंकि इस रोग में प्रायः डिस्पेप्सिया हो जाता है, अतः पाचन-शक्ति घट जाती है। रोगी को ऐसी चीजें खानी चाहिए जो आसानी से पच जाएं। यदि पाचन-शक्ति अच्छी रहे, तो दूध, खीर, रबड़ी, मांस का शोरबा आदि दिया जा सकता हैं। किसी भी प्रकार का उत्तेजक पदार्थ खाना, शराब पीना, धूम्रपान, स्त्री-सहवास आदि बिल्कुल मना है। गरम पानी से स्नान करने और गरम कपड़े पहनने चाहिए। सर्दी नहीं लगनी चाहिए और ठंडे पानी का प्रयोग नहीं किया जाना चाहिए।

नक्सवोमिका 200 — शरीर के निचले अंगों में आंशिक पक्षाघात (लकवा), चलने के समय रोगी पैरों को मानो खींच कर रखता है, भूमि से कठिनता से पैर उठना, निम्नांग कमजोर मालूम होना, इसके साथ ही पैर का ठंडा-सा भाव होना, कब्ज, मलद्वार में जलन, गरदन के पिछले भाग में दर्द इत्यादि कितने ही लक्षण दिखाई देना। इसमें पीठ की रीढ़ में कहीं कोई दर्द नहीं रहता है। इस औषधि का उच्च-क्रम 200 शक्ति या उससे भी अधिक शक्ति अधिक लाभदायक किंतु इसका कुछ अधिक दिनों तक व्यवहार करना पड़ता है।

अर्जेन्टम नाइट्रिकम 30 — पीठ में बेहद दर्द, आंखें बंद करके या अंधकार में एक पैर भी न चल सकना, दोनों पैर भारी मालूम होना (जैसे फालिज मार गई हो), चलने का ढंग ऐसा जैसे ठोकर खाता हुआ चलता हो, ऐसा मालूम हो जैसे पैर काठ (लकड़ी) के बने हों, स्थिर होकर व सीधा तनकर नहीं चल सकना, पैरों का कांपना, पैर पतले होते जाना, समूचे शरीर का रह-रह कर नर्तन-रोग की तरह कांपना या नाचना।

सल्फर 30 — चलने में अशक्ति, बहुत कमजोरी, कंपन, अंग-प्रत्यंगों में तनिक-सी भी शक्ति का न रहना। यह औषधि नक्सवोमिका के बाद अधिक उपयोगी है।

टैरेण्डुला 6, 30 — थोड़ा-सा पैर हिलाने में भी कष्ट होना, इच्छानुसार पैरों को न चला सकना, पैरों की बहुत ज्यादा कमजोरी में यह औषधि लाभ करती है।

एल्यूमिनम-मेटालिकम 30, 200 — पांव या पांव का तलुवा फूला हुआ-सा और नरम मालूम होता है; पांव की ऐड़ी कमजोर और सुन्न-सी प्रतीत हो, शरीर में भारीपन महसूस हो, अंग-प्रत्यंग हिलाने-उठाने में रोगी को कष्ट मालूम हो, रोगी बहुत धीरे-धीरे चलता हो और चलने में ठोकर खाता हो (जैसे बहुत दिनों तक कोई रोग भोगने के बाद चल रहा हो), दिन के समय भी बिना आंख खोले एक कदम भी न चल सकता हो; पीठ में दर्द, ऐसा दर्द जैसे पीठ कुचल-सी गई हो; रीढ़ के नीचे की तरफ ऐसा लगना कि उसमें गरम लोहा घुसा हुआ है। इन लक्षणों में यह औषधि लाभदायक है। डॉ० बोनिंगहोसेन तथा अन्यान्य कितने ही चिकित्सकों ने इस रोग में इस औषधि की प्रशंसा की है। डॉ० जार का कथन है कि शरीर के निचले अंगों में यदि पूरी तरह पक्षाघात हो गया हो तथा रोगी की अवस्था क्रमशः बहुत खराब होती जा रही हो, तो भी यह औषधि लाभप्रद सिद्ध होती है।

फास्फोरस 30 — पीठ में जलन करने वाला उत्ताप, हाथ-पैर सुन्न, प्रत्येक बार हिलने-डुलने के समय अंगों का कांपना, कमजोरी के कारण चलने के समय ठीक तरह से पैर नं पड़ना, हाथ-पैरों को फूलना और उनमें डंक मारने जैसा दर्द होना, शरीर के भीतर सुरसुरी मालूम होना, लकवा (पक्षाघात) और उसके साथ उत्ताप की क्रमशः वृद्धि, जननेन्द्रिय में भारी उत्तेजना, स्वप्नदोष, स्नायुओं की उत्तेजना आदि कितने ही लक्षण रहते हैं।

कैल्केरिया कार्ब 30 — कंधे में वात जैसा दर्द, पेशी की स्वाभाविक शक्ति का लोप होना, पीठ, नितंब और निम्नांग की पेशियों का शीर्ण होते जाना और कांपना, दाहिने नेत्र में अंधकार की तरह दिखाई देना, पैरं सुन्न पड़ जाना, कब्ज, भूख न लगना।

सिकेलि कोर 30, 200 — चलने के समय शराबियों की तरह बड़ी मुश्किल से लड़खड़ाते हुए चलना या चलने में बिल्कुल ही असमर्थता। निचले अंग के संकोचन के कारण ही रोगी इस तरह शराबियों की तरह लड़खड़ाता है और उसके अंग आदि कांपते हैं। कभी-कभी इसके साथ दर्द रहता है, हाथ-पैरों में कीड़े रेंगने की तरह सुरसुरी होती है और उसके साथ-साथ इसके चरित्रगत लक्षण-शरीर का बहुत गरम रहना, नग्न हो जाने की इच्छा होना यो हो जाना-भी रहते हैं।

स्टैमोनियम 6, 30 — रोगी का ऐसा कांपना, जैसे उसे कोई मस्तिष्क का रोग हो गया हो। किसी की सहायता के बिना दो-चार कदम भी न चल सकना, शरीर की पेशियों का इच्छानुसार काम न करना, खाने-पीने के समय हाथ या मुंह के पास पात्र न ले जा सकना, दृष्टि-शक्ति का लोप हो जाना।

बेलाडोना 6 — पैर और पैर के तलुवों का भारी हो जाना (जैसे-रोगी लंगड़ा हो गया हो), धीरे-धीरे पैर उठना, किंतु रखते समय जोर से धप-से गिरना। क्या ऊर्थांग की, क्या निम्नांग की, किसी भी पेशी का अपने काबू में न रहना; कांपना, अंग-प्रत्यंगों का अपने आप हिल उठना।

कूप्रम एसेटिकम 3, 30 — बाएं हाथ की उंगली से कोहनी तक सुन्न हो जाना, चलने के समय बाएं पैर में खिंचाव रहना, बायां पैर और पैर का तलुवा सुन्न हो जाना, क्रमशः यह सुन्नपन ऊपर तक चला जाना, चलने में या खड़े होने में भारी कष्ट होना, पैर और पैर का तलुवा पतली पड़ जाना, बायां पैर सदैव ठंडा मालूम होना, केवल गरम सेंक के प्रयोग से कुछ लाभ होना, कभी-कभी जांघ से घुटने तक एक तरह का दर्द होना।

फाइजस्टिग्मा 200 — चलने के समय घुटने से लेकर घुटने के नीचे वाले अंश में कुछ भी शक्ति का न रहना; इसके लिए प्रत्येक बार पैर रखते समय ध्यान रखना पड़ता हो और अपने को ठीक रखने के लिए लाठी का सहारा लेना पड़ता हो।

उपर्युक्त औषधि के अतिरिक्त जिंकम, जिंक फॉस, ऐगारिक्स; आर्सेनिक, प्लम्बम आदि औषधियां भी इस रोग में लाभदायक हैं। डॉ० आई का कहना है कि यदि पानी में भीग जाने के कारण रोग की उत्पत्ति हुई हो, तो रक्त-टॉक्स; तरुण रोग में विद्युत के धक्के की तरह दर्द हो, तो जेलसिमियम और फाईजस्टिग्मा; रोग की। प्रारंभिकावस्था में बार्बेरिस और पांव के तलुवों में आबद्ध वेदना हो, तो सैबाडिला लाभ करती है।

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