Muladhara Chakra Method and Benefits In Hindi

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मूलाधार चक्र

इसका मूल स्थान गुदा-द्वार से दो अंगुल ऊपर और लिंग-स्थान से दो अंगुल नीचे – चार अंगुल विस्तार का मूलाधार चक्र पेरिनियम में अवस्थित है। कई शास्त्रों में इस स्थान को कंद कहा है जहाँ कुण्डलिनी सर्पिणी की तरह साढ़े तीन आंटे (लपेटे) मारकर बैठी है। षट्चक्र निरूपण में लिखा है। कि मूलाधार स्थित त्रिकोण के भीतर स्वर्ण के समान भूलिंग है जिस पर कमल-तंतु के समान बाह्य द्वार को अपने मुख से ढंके हुए विद्युत एवं पूर्ण चंद्रमा की आभायुक्त अतिसूक्ष्म कुण्डलिनी शक्ति सो रही है।
मूलाधार चक्र सुवर्ण वर्ण में चार पंखुड़ियों वाला कमल दल है। इसका रंग गहरा लाल है। इसके मुख्य देवता चतुर्भुज ब्रह्मा हैं और देवी डाकिनी हैं। इसकी प्रत्येक पंखुडियों में वं, शं, षं, सं, मंत्राक्षर लिखे हैं। इस कमल दल के बीच में वर्गाकार पृथ्वी तत्व है जिसका वर्ण स्वर्ण के समान पीला है। जो चमकदार अष्ट शूल युक्त है। उस वर्गाकार का बीज मंत्र लं है जो कि ऐरावत हाथी पर सवार है। कमल दल की कर्णिका के बीच में मुलायम, अत्यंत सुंदर और विद्युत के समान चमकता हुआ लाल रंग का त्रिभुज है। जिसे कामरूप भी कहते हैं। इस त्रिभुज का सिरा नीचे की ओर है। इस त्रिभुज के अंदर रहने वाली देवी को त्रिपुर सुंदरी एवं इस त्रिभुज को शक्ति पीठ भी कहा गया है। इस त्रिकोण के अंदर स्वयंभू लिंग है। जिसका रंग धुंए के समान श्याम वर्ण है। और सर्पिणी रूपी कुंडलिनी उस लिंग के चारों तरफ़ लिपटी हुई है।
हठ योगानुसार जैसे पुरुष कुंजी (चाबी) से दरवाज़ा खोलता है उसी प्रकार योगी हठ योग के अभ्यास से सुषुम्ना के मार्ग से होता हुआ मोक्ष मार्ग को प्राप्त कर लेता है। सुषुम्ना के ऊर्ध्व शिखा के मध्य में परमात्मा स्थित है। उस सुषुम्ना-मार्ग के द्वार को मुख से आच्छादित करके कुण्डलिनी सोती है। वही कुण्डलिनी मूर्खा के लिए बंधन है और योगीजनों के लिए मोक्ष का द्वार है।
इड़ा-पिंगला नाड़ी के मध्य में जो सुषुम्ना नाड़ी है वह बालरण्डा कहलाती है। उसको हठयोग पूर्वक ग्रहण करें और परमपद को प्राप्त करें। सूत्रकार कहते हैं कि प्राण-निरोध के अभ्यास से प्राणवायु द्वारा ताड़ित होने पर कुण्डलिनी जागृत हो जाती है। इसको सिद्ध करने के लिए प्रतिदिन सुबह और संध्या के समय डेढ़ घंटे अभ्यास करना चाहिए। वज्रासन करके एड़ियों से ऊपर पैरों (गुल्फों) को पकड़े और हाथों से पकड़े हुए पादों से कंद के स्थान में कंद को पीड़ित करें या दबाएँ।
वज्रासन में स्थित योगी कुंडली को चलाकर या शक्ति चालन मुद्रा करके भस्त्रा नाम के कुंभक प्राणायाम को करें। इस रीति से कुंडलिनी शीघ्र जागृत होती है। शक्ति चालन के अनंतर भस्त्रा में वज्रासन का ही नियम है।
नाभि-देश के आकुंचन से वहाँ स्थित अग्नि या सूर्य का आकुंचन हो जाता है। फिर सूर्य के आकुंचन से कुण्डली शक्ति का चालन करें। जो योगी इस प्रकार की क्रिया करता है उसे मृत्यु या काल का भय नहीं रहता। । जो साधक ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए मिताहार करता है उस साधक को एक मण्डल में ही सिद्धि प्राप्त हो जाती है।
जो योगी कुंडली का चालन करता हुआ भस्त्रा कुंभक ही विशेष रूप से करता है उसे यम का भय नहीं रहता। देह त्यागने की भी सिद्धि हो जाती है। यह सुषुम्ना-रूप मध्यम नाड़ी साधकों के आसन प्राणायाम मुद्रा आदि के दृढ़ अभ्यास से सरल हो जाती है। अर्थात् सिद्ध हो जाती है।
इस प्रकार साधक कुण्डलिनी जागृत करने के लिए उपरोक्त संदर्भ को ध्यान में रखकर धैर्य पूर्वक गुरु-निर्देशन में नित्य प्रति अभ्यास करें। सफलता एवं सिद्धि प्राप्त करते हुए वह साधक आत्मज्ञाता बनकर परमार्थ करता हुआ पूज्यनीय बन जाता है।
यदि सामान्य रूप से मूलाधार चक्र का ध्यान करें तो भी कई लाभ प्राप्त होते हैं। जैसे- शरीर में कांति, तेज व ओज की वृद्धि होती है। मेरुदण्ड सशक्त होता है। रक्त-विकार, काम-विकार, त्वचा-विकार, नेत्र-विकार, मूत्र-प्रदेश के विकार इत्यादि नहीं होते। चक्रों के सही विकास नहीं होने से भी कई रोग होते हैं। अतः साधकों को चक्रों का ध्यान अवश्य करना चाहिए।

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