विपर्स रोग का होम्योपैथिक इलाज [ Homeopathic Medicine For Erysipelas ]

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यह एक प्रकार का नया औद्येदिक-ज्वर और संक्रामक रोग है। इसमें त्वचा के नीचे के टीशुओं के किसी एक असीमाबद्ध स्थान में प्रदाह होकर वह शीघ्र ही अन्य स्थान में फैल जाता है; त्वचा पर जिस जगह रोग का आक्रमण होता है, वह जगह लाल-सुर्ख होकर फूल जाती है। साधारणतया यह रोग पहले मुंह या किसी तरह के घाव के निकटवर्ती स्थान से आरंभ होता है और फिर अंयंत्र फैल जाता है। यह रोग सर्दी या ठंड लगने, चोट लगने, खाने-पीने की गड़बड़ी एवं घाव के साथ किसी विषाक्त पदार्थ का संबंध हो जाने से इरिटेशन, रक्तहीनता, मद्यपान आदि कारणों से होता है। स्त्रियों को ऋतु-स्राव के समय भी प्रायः यह रोग हो जाता है।

यह रोग 40 वर्ष से अधिक आयु वालों को ही अधिक होता है। बहुत-से प्रौढ़ व्यक्तियों के मुंह पर हर वर्ष यह रोग होता देखा गया है। इसमें रोगाक्रांत त्वचा पहले लाल-सुर्ख हो जाती है, फिर प्रदाहिक उद्देद निकलते हैं और सूजन आ जाती है, त्वचा गरम हो जाती है, जलन होती है, दर्द होता है। क्रमशः यह रोग एक जगह से दूसरी जगह फैल जाता है।

लैकेसिस 30 — इस रोग का आक्रमण शरीर के बाएं हिस्से पर होता है। त्वचा पर छाले पड़ जाते हैं, त्वचा लाल हो जाती है। रोग के लक्षण रात के बाद बढ़ जाते हैं। रोगी स्पर्श को सहन नहीं कर सकता।

हिपर सल्फर 30 — त्वचा की कोई भी ऐसी शिकायत जिसमें रोगी त्वचा का जरा भी स्पर्श सहा न करे इस औषधि के क्षेत्र में है। रोगी को वायु तक का स्पर्श सहन नहीं होता। विपर्स रोग में यह औषधि लाभदायक है।

एकोनाइट 3x, 6 — सर्दी लगकर रोग की उत्पत्ति, बिना पसीने का ज्वर, बेचैनी, प्यास इत्यादि। रोग की प्रथम अवस्था में इसका प्रयोग किया जाता है।

बेलाडोना 6, 30 — रोगाक्रांत स्थान का लाल-सुर्ख हो जाना और चमकना, रोगी की आंखों और चेहरे पर रक्त की ललाई दिखाई देना; रोगी का अंट-संट बकना, अनिद्रा, मुंह पर रोग होने से आंख और मुंह सूज जाना और आंखें मिच जाना।

एपिस 6 — जिस स्थान पर रोग का आक्रमण हुआ है, उसका सूज जाना; उझेद का रंग फीका लाल; इस औषधि का रोग अन्यान्य स्थानों पर होने पर भी अधिकतर मुंह पर ही होता है, और अतिरिक्त फूल जाने के कारण आंखें मिच जाती हैं। मुंह के भीतर और गले में रोग होने से श्वास लेने में कष्ट होता है; यह रोग स्थान-परिवर्तन करता है। शरीर में हवा लगने से जलन होती है और खुजलाहट आदि बढ़ जाती है। प्यास बहुत कम रहती है या बिल्कुल भी नहीं रहती।

आर्सेनिक 30, 200 — रोग की प्रबलती होकर रोगग्रस्त स्थान या फफोलों का काला पड़ जाना, सड़ने के लक्षण, अत्यंत कमजोरी, प्यास, बेचैनी और अत्यधिक जलन का होना।

कूप्रम ऐसेट 30 — उद्येद बैठकर मस्तिष्क आक्रांत होना, सिरदर्द, देह में दर्द, अंट-संट बकना आदि उपसर्ग का होना।

कैथरिस 6 — बड़े-बड़े फफोले, अत्यंत जलन होने में उपयोगी है।

रस-टॉक्स-मुंह — गरदन और माथे में प्रदाह, सूजन, अंट-संट बकना, मुंह के बाईं तरफ रोग का आक्रमण होकर दाहिनी ओर फैल जाना (रस-टॉक्स के रोग में फफोले होते हैं और मस्तिष्क पर रोग का आक्रमण होता है, बाय आ जाती है)।

वेरेटूम विरिड 3 — प्रबल ज्वर, जबरदस्त सिरदर्द, कड़ी और तेज नाड़ी, जोर की प्यास, रोगाक्रांत स्थानों में जलन, इंक लगने जैसा दर्द। यह औषधि रोग की प्रथम अवस्था में दी जाती है।

मर्क्युरियस 6 — रोग-ग्रस्त स्थान पर बीच-बीच में लकीर जैसे लाल-लाल दाग होना और फूल जाना, ठंड लगकर रोगोत्पत्ति, जलन होना।

बैप्टीशिया 2 — टायफॉइड की हालत हो जाने पर यह औषधि दी जाती है।

सल्फर 30, 200 — यदि अधिक दिनों तक बिना रहे या ठीक होने के बाद रोग पुनः उभर आए, तो बीच-बीच में इसकी 1 मात्रा दी जा सकती है।

ग्रैफाइटिस 30 — विपर्स के दानों में गाढ़ा-सा स्राव निकलने लगता है और विपर्स ठीक होकर दोबारा से फिर हो जाता है, तब इससे लाभ होता है।

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