सुजाक या प्रमेह का होम्योपैथिक इलाज [ Homeopathic Medicine For Gonorrhoea ]

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प्रमेह के रोग को साधारण भाषा में “सूजाक” कहते हैं। यह स्पर्शाक्रमक और प्रादाहिक रोग है। सूजाक की रोग वाली स्त्री के साथ संगम करने से पुरुष को और सूजाक वाले पुरुष के साथ सहवास करने से स्त्री को यह रोग हो जाता है। पुरुषों की मूत्रनली के 1 इंच पीछे एक गड्ढा है, सूजाक पहले इसी जगह से शुरू होता है। यदि इसका समय पर उपचार न हो जाए, तो फिर इस रोग का विष क्रमशः भीतर की ओर बढ़ता चला जाता है और अंत में मूत्रनली, मूत्राशय और अंडकोष आदि तक फैल जाता है। जब स्त्रियों को यह गोनोरिया-विष लग जाता है, तो पहले उनकी योनि के पास वाले यंत्रादि-जैसे मूत्रनली, मूत्राशय, जरायु, डिम्ब-प्रणाली इत्यादि वस्ति-प्रदेश के प्रायः सभी यंत्र-रोगाक्रांत हो जाते हैं। जब गोनोरिया की पीब शरीर के अन्य किसी स्थान की श्लैष्मिक-झिल्ली में लग जाती है, तो वह स्थान भी रोगाक्रांत हो जाता है।

कैनाबिस इंडिका (मूल-अर्क) — बहुत-से चिकित्सकों का कथन है कि गोनोरिया की इसके समान फलदायक कोई दूसरी औषधि देखने में नहीं आती। लिंगाग्र-चर्म की सूजन, सुपारी और उसके ऊपर की त्वचा के प्रदाह से उत्पन्न सुर्सी, सुपारी की सूजन, मूत्र के समय और बाद में मूत्रनली में असह्य यंत्रणा, मूत्रनली में दर्द-ये सब इस औषधि के विशेष लक्षण हैं। इसके मदर टिंक्चर की 20-25 बूंद 8 आउंस पानी में मिलाकर 2 चाय की चम्मच की मात्रा में 2-3 घंटे के अंतर से दें।

थूजा 30 — मूत्रनली का मुखे चिपका रहता है, पीली पीब मिश्रित स्राव निकलता है। शरीर में से गोनोरिया का विष निकाल देने के लिए काफी दिनों तक इसका प्रयोग करना चाहिए।

कैथरिस 30 — मूत्र के साथ जलन और रक्त-स्राव अधिक, बूंद-बूंद मूत्र निकलना और निकलते-निकलते रुक जाना, मूत्र में बहुत वेग और कूथन, रक्त-मूत्र आना, रोगी पीड़ा से बेचैन रहता है।

नाइट्रिक एसिड 6 — मूत्र-मार्ग में श्लेष्मा-मिश्रित पस तो जाता ही है, साथ ही रोगी के मूत्रमार्ग में सूइयां-सी चुभती हैं, मूत्रेन्द्रिय सूज जाती हैं। थूजा से लाभ न होने पर यह औषधि दें।

नेफयेलाइन 3x — मूत्रेन्द्रिय का मुख लाल, सूजा हुआ, मूत्रेन्द्रिय में काटने वाला दर्द होना।

एकोनाइट 30 — प्रमेह-रोग की प्रथमावस्था में जब रोग का आरंभ हुआ हो, जननेन्द्रिय में शोथ हो, रोगी को ज्वर आता हो, तब इस औषधि का प्रयोग करना चाहिए।

अर्जेन्टम नाइट्रिकम 30 — कभी-कभी इसका रोग की प्रथम अवस्था में प्रयोग होता है। मूत्रनली से बहुत अधिक पीब का निकलना, काटने-फाड़ने की तरह कष्टदायक दर्द, ऐसा मालूम होना मानो मूत्रनली अवरुद्ध हो गई है; रक्तस्राव, कष्टदायक लिंगोद्रेक इत्यादि लक्षणों में प्रयोग करें।

कैप्सिकम 6, 200 — प्रमेह की पहली अवस्था में जल्दी-जल्दी और लगातार मूत्र की हाजत का होना, किंतु मूत्र न होना; मूत्र-त्याग के समय अधिक वेग और जलन, बूंद-बूंद मूत्र निकलना, मूत्रनली में डंक मारने की तरह दर्द, तनाव का दर्द आदि लक्षणों में इसका प्रयोग करना चाहिए।

जेलसिमियम 30 — स्नायु-प्रधान व्यक्तियों के रोग में यह औषधि अधिक लाभ करती है। प्रथम अवस्था में जब पतला स्राव निकलता है और पीब की तरह गाढ़ा नहीं होता, तब इससे लाभ होता है। प्रमेह का स्राव एकाएक बंद हो जाने से अंडकोष के प्रदाह में इसकी आवश्यकता होती है।

ऐग्नस कैस्टस 6 — मूत्रद्वार में सफेद रंग का सड़ी पीब जैसा या पीले रंग का लसदार स्राव लगा रहना। ध्वजभंग (नपुंसकता), बहुत अधिक इंद्रिय-परिचालन से स्वास्थ्य-नष्ट होने में लाभप्रद है।

सिनाबेरिस 30 — गर्मी के रोग वाले रोगी को सूजाक हो जाए यानी जिनके शरीर में सिफिलिस और साइकोसिस दोनों विष घुस गए हों, जो बार-बार सूजाक होने से बिल्कुल अकर्मण्य हो गए हों और अंत में नाना प्रकार के चर्म-रोगों के शिकार हो गए हों, उन्हें इससे लाभ होगा।

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