कर्णमूल प्रदाह का होम्योपैथिक इलाज [ Homeopathic Medicine For Mumps, Parotitis ]

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यह रोग मुख्यतः सर्दी अथवा वर्षा-काल में होता है और बच्चों व युवाओं को ही अधिक हुआ करता है; बूढ़े स्त्री-पुरुषों को अपवाद रूप में हो सकता है। यह संक्रामक रोग है। कान के नीचे, निचले जबड़े के कोने में एक गांठ है, जिसे “कर्णमूल” कहते हैं। इस रोग में यह गांठ किन्हीं जीवाणुओं के उनमें प्रवेश कर जाने के कारण सूज जाती है, लाल हो जाती है, कड़ी पड़ जाती है, दर्द करती है। ज्वर, मिचली, लार बहना, गाल का फूलना, चबाने और निगलने में कष्ट, गले का फूल उठना, गरदन हिला न सकना आदि इस रोग के प्रधान लक्षण हैं। साधारणतः चौथे दिन यह रोग पूरी तरह बढ़ा दिखाई देता है और आठ-दस दिन में इसके सब उपसर्ग दब जाते हैं, इसलिए इसमें डर की कोई बात नहीं रहती। किंतु यदि यह रोग गांठों को छोड़कर हृदय, मस्तिष्क, स्त्रियों के स्तनों या पुरुषों के अंडकोष पर आक्रमण करे, तो भयंकर हो सकता है, अन्यथा इस रोग में कोई खतरा नहीं है।

एकोनाइट 3x, 3, 30 — इस रोग में यदि रोगी को ज्चर चढ़ जाए, बेचैनी और परेशानी हो, प्यास सताती हो, दर्द हो, सर्दी के दिनों में जाड़ा लगकर यदि रोग उत्पन्न हो जाए, तब इसका प्रयोग करना चाहिए।

बेलाडोना 3x तथा मर्क आयोडाइड 30 — गलि (विशेषकर दाहिना गाल) फूले और लाल हो; प्रलाप, तेज दर्द, मस्तिष्क पर रोग का आक्रमण होना इत्यादि लक्षणों में ये दोनों औषधियां अत्युत्तम हैं। बेलाडोना को मर्क आयोडाइड 30 के साथ पर्याय-क्रम से देते रहने से रोग शीघ्र अच्छा हो जाता है। आधा-आधा घंटे बाद इन दोनों औषधियों को एक-दूसरे के बाद देते रहना चाहिए।

जेबोरंड़ी (पाइलोकारपस माइक्रोफाइलम) 3 — इस औषधि का ग्रंथियों पर विशेष प्रभाव है। इसकी परीक्षा-सिद्धि में देखा गया है कि यह ग्रंथियों को इतना उत्तेजित कर देती है कि सारे शरीर से पसीना फूट पड़ता है; चेहरा, कान, गरदन पसीने से तर-बतर हो जाते हैं, मुंह से पानी निकलने लगता है; सैलाइवा की एक निरंतर धार; इसी लक्षण के आधार पर इसका कर्णमूल-प्रदाह पर प्रयोग करके देखा गया, तो इस रोग में इससे बहुत लाभ हुआ। डॉ० बर्नेट का कहना है कि इस रोग में इससे अच्छी कोई दूसरी औषधि नहीं है। इसका तुरंत प्रभाव होता है और दर्द जाता रहता है। इस रोग में स्त्रियों के स्तनों तथा पुरुषों में अंडकोषों पर आक्रमण होने की संभावना रहती है। उस संभावना को भी यह औषधि दूर कर देती है। इस प्रकार का आक्रमण आमतौर पर तब होता है, जब ठंड लग जाने के कारण वास्तविक रोग तो दब जाए और रोग का स्तनों या अंडकोष में स्थानांतरण हो जाए। यह औषधि रोग-निरोधक भी है, अतः जब रोग फैल रही हो, तब इसे देते रहने से दूसरों को रोग नहीं होता।

रस-टॉक्स 3 — कर्णमूल-ग्रंथि (विशेषकर बाईं ओर की) फूली और गहरी लाल, तथा तेज दर्द आदि लक्षणों में (विशेषकर बरसाती हवा लगकर रोग होने पर) यह औषधि उपयोगी है।

पैरोटिडीनम 6, 30 — यह एक नोसोड है, जो मंप्स से तैयार किया गया है। रोग-निरोधक” के रूप में इस औषधि की 1 मात्रा दिन में 2-3 बार देते रहने से रोगी के घर के अन्य बच्चे इस रोग के आक्रमण से बच जाते हैं। जिस पर रोग का आक्रमण हुआ है, उसे हर 4 घंटे के बाद इसे देते रहने से इस रोग के कारण होने वाले उपद्रव नहीं होते।

फाइटोलैक्का 3 — किसी भी ग्रंथि का कड़ा पड़ जाना (गला, टांसिल, अंडकोष आदि) इस औषधि के प्रभाव-क्षेत्र में है। यह मुख्य रूप-से ग्रंथियों के रोग की औषधि है। यदि ग्रंथियां सूज जाएं, तो यह उपयोगी सिद्ध होती है। यदि उपरोक्त औषधियों से लाभ न हो, तो इसका प्रयोग करना चाहिए।

पल्सेटिला 30 — यदि कर्णमूल-शोथ में कान पर रोग का आक्रमण हो, कान में दर्द हो, इस दर्द में सेक से आराम मिले, तब इसे दें। यदि रोग का आक्रमण स्तनों या अंडकोषों पर होता दिखाई दे, तब भी यह औषधि लाभ करती है।

एब्रोटेनम 3, 30 — किसी भी रोग के स्थानांतरण में यह औषधि उपयोगी है। मान लीजिए, यदि दस्त बंद हो जाएं, तो गठिया का या बायं का दर्द हो जाए गठिया या बाय का दर्द बंद हो, तो बवासीर हो जाए; या कर्णमूल-शोथ दब जाए और स्तनों या अंडकोषों में सूजन चली जाए-ऐसे स्थानांतर में यह औषधि उपयोगी है। पल्सेटिला तथा कार्बोवेज में भी कर्णमूल के शोथ का स्तनों अथवा अंडकोषों में स्थानातंरण पाया जाता है।

मर्क सोले 30 — दाईं तरफ सूजन हो, मुंह से बदबू आए, मुंह में सैलाइवा भर जाएं, प्यास लगे, बदबूदार पसीना आए, तब लाभप्रद है।

लाइकोपोडियम 30 — गले की सूजन दाईं तरफ से शुरू हो, या दाईं तरफ से शुरू होकर बाईं तरफ जाए, रोगी गरम पेय पीना चाहे, किंतु मुंह में मर्क की तरह न तो बदबू हो, न मुंह में सैलाइवा भर आए, तब दें।

लैकेसिस 30 — गले की बाईं ग्रंथि बहुत अधिक सूज जाए, तनिक-सा स्पर्श भी सहन न हो, दर्द बहुत हो, गले से कुछ भी निगला न जा सके, गला भीतर से दुखे, चेहरा लाल फूला हुआ हो, तब दें।

सल्फर 30 — यदि पीब होने की आशंका हो, तब इसका प्रयोग करना चाहिए।

हिपर सल्फर 6, 30 — रोग की अंतिम अवस्था में पीब पैदा होने पर दें।

विशेष — रोगी को सदा बिस्तर पर सुलाए रखना चाहिए और इस बात पर दृष्टि रखनी चाहिए कि उसे ठंडी या गरम हवा न लगे। रोग वाले अंग में गरम सेक देना लाभदायक है। तात्पर्य यह कि बाहर की सब तरह की सर्दी हानि कर सकती है। अधिक दूध या मांस-मछली खाना उचित नहीं है। रोग वाली जगह को रुई से ढंके रखना आवश्यक है। रोग की प्रथमावस्था में सागु, बार्ली, शोरबा आदि देना चाहिए। इसके बाद हल्का भोजन, पुष्ट और पतली चीजें खाना आवश्यक है। बिन-आयोडाइड ऑफ मर्करी 5 ग्रेन 1 औंस ऑलिव-ऑयल के साथ मिलाकर, उसमें थोड़ी रुई भिगोकर प्रदाह वाले स्थान पर लगाने से बहुत लाभ होता है।

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