प्ल्यूराइटिस, प्लुरिसी का होम्योपैथिक [ Homeopathic Medicine For Pleurisy ]

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इसको फेफड़े के आवरण का प्रदाह भी कहते हैं। सीने के भीतर दोनों बगल के ऊपर ही सांप की केचुली की तरह (खूब महीन जाल के आकार में) एकेक कोमल पतला परदा है, यह परदा फेफड़े इत्यादि को ढककर सीने के पंजरे के नीचे के हिस्से से फैलता हुआ घूमकर फिर फेफड़े के ऊपर (मुंह बंद थैली की शक्ल में) आकर मिल जाता है। इस परदे को ‘वक्षावरक झिल्ली’ कहते हैं और इसका अंग्रेजी नाम प्लुरा (Pleura) है। स्वस्थ अवस्था में प्राकृतिक नियम के अनुसार प्लुरा से थोड़ा-थोड़ा एक तरह का तरल रस (serous fluid) निकला करता है, जिससे यह फुसफुसावरक-झिल्ली चिकनी और तर रहती है और यही कारण है कि पंजरे और फेफड़े आपस में रगड़ नहीं खाते। किसी कारण से यदि इस प्लुरा में प्रदाह होकर प्लुरा सूख जाती है और उसकी बंद मुंह वाली थैली में (Pleural Cavity) पानी इकट्ठा हो जाने पर उसको ‘प्ल्यूराइटिस या प्लुरिसी’ (फुसफुसावरक-झिल्ली-प्रदाह) कहते हैं। दूसरे शब्दों में फेफड़े के आवरण के शोथ को ‘प्लुरिसी’ कहते हैं। नब्बे प्रतिशत व्यक्तियों को, जिन्हें यह रोग होता है, यक्ष्मा (टी०बी०) के कारण होता है, वैसे सर्दी लगना, वात-व्याधि (Rheumatism), टाइफॉयड, इन्फ्लुएन्जा तथा न्युमोनिया भी इसके कारण हो सकते हैं।

प्लुरिसी के लक्षण – एकाएक जाड़ा लगकर और कंपकंपी होकर ज्वर चढ़ता है, इसके साथ ही साथ सीने की एक तरफ बगल में (साधारणत: स्तन के पास की जगह पर) दर्द होता है। दर्द डंक मारने, सूई गड़ने या काटने-फाड़ने की तरह होता है। हिलने-डोलने, खांसने, यहां तक कि श्वास लेने और छोड़ने पर यह दर्द बढ़ता है। पसलियों की हड्डी के भीतर खींचन और दर्द मालूम होता है, उस दर्द को घटाने के निमित्त रोगी हाथ से सीना दबाकर पकड़ रखता है; कुछ-कुछ खांसी भी आती है, ज्वर अधिक नहीं रहता, शायद ही कभी 103 डिग्री से ज्यादा हो, नाड़ी की गति मिनट में 100 बार रहती है। त्वचा सूखी, गरम और जिह्वा सूखी रहती है, पेशाब लाल और परिमाण में कम होता है।

नाड़ी की गति असमान रहती है, रोगी-पार्श्व की तरफ श्वास-प्रश्वास थोड़ा होता है, स्वस्थ नीरोग पार्श्व से तुलना करने पर रोग वाला पार्श्व बड़ा दिखाई देता है, पानी के दबाव से फेफड़ा हट जाता है, हृत्पिण्ड की जो लब-डब (Apex Beat) आवाज सुनाई पड़ती है, फुसफुसावरक झिल्ली (प्लुरा) में पानी इकट्ठा हो जाने पर फिर लब-डब आवाज नहीं सुनाई देती। दाहिनी ओर रोग रहने पर यकृत और बाईं तरफ रोग रहने पर प्लीहा अपनी जगह से हट जाती और नीचे उतर जाती है, श्वास में बहुत कष्ट होता है, शिराओं में रक्त का दौरा न हो सकने के कारण मुंह, हाथ, पैर, शरीर के सब अंग नीले दिखाई देते हैं, श्वास-कष्ट और सीने में दर्द होता हे। इस कष्ट से बचने के लिए रोगी इस अवस्था में रोग वाली करवट दबाकर सोता है या चित्त पड़ा रहता है।

प्लुरिसी रोग निम्नलिखित तीन अवस्थाओं में से गुजरता है-

(1) पहली – खुश्की की अवस्था (Dry stage)

(2) दूसरी – स्राव की अवस्था (Stage of Effusion)

(3) तीसरी – ह्रास की अवस्था (Stage of Decline)

(1) पहली अवस्था-(खुश्की की) – यह प्लुरिसी की पहली अवस्था है। इसमें प्लुरा सूज जाती है और स्तनों के पास या पहलुओं में खोंचा मारने जैसा तेज दर्द होता है, श्वास लेने से यह बढ़ जाता है, श्वास तेज हो जाता है, झटके दे-देकर श्वास आता है। श्वास अंदर खींचने के समय श्वास का कष्ट बहुत अधिक होता है। कभी-कभी यह कष्ट उदर मात्र में होने लगता है और गलती से पेट या आतों में दर्द समझ लिया जाता है। खांसी आती है, खुश्क, थोड़ी-सी दर्द सहित। थूक बहुत कम निकलता है। रोगी उस करवट लेटता है, जिधर रोग का आक्रमण नहीं होता। नब्ज तेज चलती है, ज्वर 103 डिग्री तक चला जाता है। छाती में दर्द का कारण ‘प्लुरा’ (फेफड़े को ढांपने वाली झिल्ली) का सूज जाना है। जब यह सूजी हुई प्लुरा श्वास लेने पर फेफड़ों की परत को छूती है, तब इन दोनों परतों की रगड़ से छाती में सख्त दर्द होता है।

(2) दूसरी अवस्था-प्लुरा में से स्त्राव निकलने की – इस अवस्था में प्लुरा और फेफड़े के बीच बहुत-सा स्राव इकट्ठा हो जाता है। स्राव भर जाने की वजह से परतों में रगड़ न होने से दर्द कम हो जाता है, श्वास भारी होने लगती है और यदि बाएं फेफड़े की तरफ स्राव जमा हो गया है, तो हृदय को वह दाईं तरफ धकेल देता है। ज्वर अब भी बना रहता है । रुधिर में श्वेत रक्त-कणों को अधिकता हो जाती है। शरीर का मांस क्षीण होने लगता है, बल का भी ह्रास हो जाता है। पेशाब (मूत्र) बहुत थोड़ा हो जाता है, गाढ़े रंग का। जिस तरफ स्राव जमा हुआ है, उधर छाती उभर आती है। यह अवस्था एक सप्ताह तक बनी रह सकती है। यदि यह स्राव जज्ब न हो या अधिक समय तक बना रहे, तो इसे निकालने की आवश्यकता पड़ जाती है।

(3) तीसरी अवस्था-रोग के ह्रास की – इस अवस्था में रोग के समस्त लक्षण मध्यम पड़ जाते हैं, रोगी स्वस्थ होने लगता है। कभी-कभी स्राव जज्ब नहीं होता, ऐसे में यदि उसे निकाला न गया, तो प्लुरा और फेफड़े के बीच में पस पड़ जाती है, जिस कारण प्राय: रोगी का बचना असंभव हो जाता है।

प्लुरिसी का कारण – एकाएक सर्दी लगकर या खूब गरम रहने की उत्तापावस्था में सर्दी लगकर यह रोग होता है। फेफड़े का प्रदाह, वायु-नली भुज-प्रदाह या इसी तरह का कोई दूसरा रोग, टाइफॉयड, खसरा, इन्फ्लुएन्जा, सीने में चोट लगना आदि कारणों से भी गौण रूप से इस रोग की उत्पत्ति होती है।

भावीफल – प्लुरिसी के कारण यदि मृत्यु होती है, तो अधिकांश रोगी हार्टफेल (हृत्पिण्ड की चाल रुक जाना) के कारण ही मरते हैं। किंतु इस रोग में रोगी प्रायः मारात्मक नहीं हो जाते, सैकड़ों रोगी (एक सौ में से 70-80) आरोग्य हो जाते हैं।

प्लुरिसी में पथ्य – दूध, दूध-सागू, बार्ली, आरारोट आदि। यदि पेट की गड़बड़ी अर्थात पतले दस्त आदि हो जाते हों, तो दूध बंद कर देना चाहिए और केवल पानी में बना सागू, पानी का ही आरारोट, पानी का बार्ली आदि पथ्य रूप में देना चाहिए। बहुत थोड़ी मात्रा में फलों का रस भी दिया जा सकता है।

सावधानी – जिन्हें एक बार यह रोग हो गया है, उन्हें चाहिए कि बहुत दिनों तक शरीर में सर्दी न लगने दें। जरा-सी सर्दी पड़ते ही या पानी बदली का लक्षण होते ही शरीर गरम कपड़ों से ढंक कर रखें। स्नान आदि भी बहुत सावधानी से करें, जिसमें अचानक सर्दी न लग जाए। प्राय: ऐसे रोगी भी देखने में आए हैं, जिन्हें प्लुरिसी के रोग से यक्ष्मा हो गया था। खाने-पीने के विषय में भी सावधान रहना आवश्यक है। पानी गरम पीना उचित है। स्नान भी गरम पानी से ही करना चाहिए।

प्लुरिसी की मुख्य होम्योपैथिक औषधियां हैं :-

एकोनाइट (मूल-अर्क) 30 – रोग कब हो गया? इसका पता बहुत देर से चलता किंतु यदि रोग के शुरू में ही इस औषध की 30 शक्ति की कुछ मात्राएं दे दी जाएं, तो 24 से 48 घण्टे के भीतर ही मानो जादू से सारी शिकायत दूर हो जाती है। डॉक्टर जौसेट इस औषधि के मूल अर्क की 15-20 बूंद प्रतिदिन देकर रोग को काबू में ले आते रहे हैं। उनका कहना है कि इस औषधि के मूल-अर्क से प्लुरा का स्राव भी जज्ब हो जाता है, इसलिए इस रोग में यह औषध देना बहुत आवश्यक है।

ब्रायोनिया 3, 6, 30 – जब प्लुरा में सूजन होती है, तब यह भी हो सकता है कि सूजन की तरफ लेटने से वह भाग दब जाए, और श्वास लेने से जो फेफड़ा दबा नहीं है और जिस पर रोग का आक्रमण नहीं हुआ वही काम करे, जो फेफड़ा रोग से आक्रांत हुआ है। वह काम न करे और काम न करने की वजह से रुग्ण भाग की तरफ लेटने से दर्द न हो, तब इस औषधि का प्रयोग करना उचित है। एकोनाइट से लाभ न हो, तब भी ब्रायोनिया देकर देखना चाहिए। इस औषधि का लक्षण हरकत से दर्द होना है, तनिक-सा भी हिले नहीं कि छाती में मर्मभेदी दर्द होता है। कई चिकित्सक ब्रायोनिया तथा कैंथरिस को एक-दूसरे के बाद देने को कहते हैं।

बेलाडोना 3, 6, 200 – रोग की जब शुरुआत होती है, तब प्लुरा में शोथ के कारण उस पर दबाव पड़ने से दर्द होता है, किंतु यह शुरुआत में होता है और इस अवस्था में दर्द वाली तरफ लेटने से दर्द बढ़ता है। तेज ज्वर हो, चेहरा तमतमा रहा हो, तब इस औषध का देना ठीक रहता है। डॉ० ड्यूई के कथनानुसार रोग की आरंभिक अवस्था में यह औषधि अवश्य ही दी जानी चाहिए।

साइलीशिया 6 – (प्रति 2 घंटे) पस पड़ जाने पर यह औषधि भी दी जा सकती है।

चायना 3 – (प्रति 2 घंटे) यदि बेहद कमजोरी हो जाए, तपेदिक की आशंका हो, तो इस औषधि से भी लाभ हो सकता है।

एपिस 6, 30, 200 – अधिक परिमाण में पानी इकट्टा होने पर यह औषधि लाभ करती है। इसमें छाती में डंक मारने जैसा दर्द होता है, प्यास नहीं लगती है।

आर्सेनिक 30, 200 – एपिस की तरह बहुत अधिक परिमाण में पानी इकट्ठा होना, रोगी छटपटाया करता है, मानो श्वास बंद हो गई है। बहुत कमजोरी और प्यास रहती है।

एसक्लिपियस ट्यूबरोसा Q, 2x – दाहिनी और भयानक दर्द, बहुत सूखी दम अटकने वाली खांसी, पुराने आकार के यक्ष्माँ रोग में यह लाभ करती है। छाती, कन्धा, बाएं स्तन से नीचे की पसलियों तक दर्द।

कैंथराइडिस 6, 30 – पानी इकट्ठा होने की अवस्था में ही इससे अधिक लाभ होता है। इस अवस्था में इसका चरित्रगत लक्षण-जलन और उसके साथ ही सामान्य ज्वर, छाती में तीर गड़ने की तरह दर्द, तेज सूखी खांसी और श्वासकृच्छता रहने पर इससे और भी विशेष लाभ होगा। डॉ० हेल का कहना है कि बच्चों की प्लुरिसी की यह बहुत लाभदायक औषधि है, पर डॉ० आर्नड का कहना है कि कैपिलरी ब्रांकाइटिस के साथ यदि प्लुरा पर आक्रमण हो जाए और विशेषकर यदि यह किसी तरह के उदभेद वाले ज्वर के बाद सर्दी लगकर हो, तो इस औषधि से और अधिक लाभ होगा।

डिजिटेलिस 3x, 6, 30 – प्लुरा में पानी इकट्ठा होने के साथ इसके हृत्पिण्ड और नाड़ी के लक्षण रहें, तो इससे लाभ होगा। जर्मनी के चिकित्सकों का मत है कि यह ब्रायोनिया के समकक्ष की औषधि है।

हिपर सल्फर 30, 200 – रोग की अंतिम अवस्था में और पुराने रोग में जब पीब पैदा हो जाए और यक्ष्मा हो जाने की संभावना अधिक हो, उस समय इसकी आवश्यकता पड़ती है।

कैलि कार्ब 30, 200 – भयानक सूई गड़ने की तरह दर्द (ब्रायोनिया की भांति), यदि यह दर्द ब्रायोनिया से न घटे, तो इससे लाभ होगा। यक्ष्मा के रोगियों में जब फुसफुसावरक-झिल्ली आपस में जुड़ जाती है, उस समय यह औषध खूब लाभ करती है।

रैनानक्यूलस बल्बो 6, 6x, 30 – वक्षोदर मध्यस्थ पेशी (डायफ्राम) पर रोग का आक्रमण होने, छाती की मांसपेशियों में शूल की तरह दर्द, भयानक खोंचा मारने की तरह दर्द, छाती में पानी इकट्ठा होना, दोनों प्लुरा का एक साथ जुट जाना।

स्कुइला 30 – इस औषधि से बहुत जल्दी फुसफुसावरक झिल्ली का पानी सूख जाता है।

एण्टिम आर्स 3x, 30 – बाईं ओर की प्लुरिसी, छाती में पानी इकट्टा होना।

एण्टिम टार्ट 6x – प्लुरा में शोथ होने की प्रारंभिक स्थिति, छाती में अत्यधिक घड़घड़ाहट तथा थोड़ा बहुत कफ निकलना, रोग की द्वितीयावस्था में हितकर है।

कैलि बाईक्रोम 6, 30 – लसदार बलगम, थूकने के समय वह लंबा होकर मुंह के बाहर झूलता रहता है और ऐसा मालूम होता है मानो खींचने पर और भी सूत की तरह लंबा हो जाएगा। सीना चिपक जाता है, बलगम निकालने के लिए रोगी हांफा करता है और खांसता है। गले में सुरसुरी होकर खांसी आती है, कलेजा धड़कता है, श्वास में कष्ट होता है, लेटने पर ऐसा अनुभव होता है, जैसे श्वास रुक जाएगी। नाड़ी असम, तेज और कमजोर।

सिमिसिफ्यूगा 6 – वक्षस्थल के दर्द में, बोलने से ही खांसी आने लगती है।

आयोडीन 3 – रोगी बहुत कमजोर या बहुत दुबला हो जाए, बहुत दिन तक रोग को भोगते रहने पर श्वास-प्रश्वास में कष्ट, चित्त होकर लेटने और गर्मी से खांसी बढ़ने पर आर्सेनिक के बदले आयोड देना चाहिए।

फास्फोरस 3, 30 – फेफड़े पर आक्रमण होना, बलगम का रंग जंग लगे लोहे की तरह, सुस्ती, विशेषकर कमजोर धातु और यक्ष्मा की धातु वालों के लिए अधिक उपयोगी है।

टैनिक एसिड 3x – यह औषध अधिक परिमाण में आप ही आप पीब निकलने पर प्रयोग की जानी चाहिए।

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