मलेरिया बुखार का होम्योपैथिक इलाज [ Malaria Ki Homeopathic Medicine ]

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Plasmodium Malariae नामक एक तरह का जीवाणु ही इस रोग की उत्पत्ति का कारण है, यह रक्त में मिलकर रक्त-कण को दूषित बना देता है, इसलिए मनुष्य रक्तहीन हो जाता है और उसके शरीर का रंग पीला पड़ जाता है। मलेरिया-विष वायु और जल में मिलकर और कितने ही स्थानों में मच्छरों के द्वारा शरीर में प्रवेश कर जाता है। मलेरिया ज्वर की तीन अवस्थाएं हैं

  1. शीतावस्था (Cold Stage)
  2. उत्तापावस्था (Heat Stage)
  3. पसीने वाली अवस्था (Sweat Stage)

किसी भी ज्वर में ये तीनों अवस्थाएं अर्थात सर्दी लगकर ज्वर आना, इसके बाद शरीर गरम होकर ताप का बढ़ना और पसीना आकर ज्वर का उतर जाना-इन तीनों लक्षणों का स्पष्ट समावेश दिखाई दे, तो उसको मलेरिया समझ लेना चाहिए (किसी-किसी को इन तीनों अवस्थाओं में से एक भी अवस्था प्रकाशित नहीं होती)।

शीतावस्था – इसमें कंपकंपी होकर ज्वर आता है, हाथ-पैर ठडे रहते हैं। शीत किसी के हाथ, किसी के पैर और किसी का सीना, इस तरह अलग-अलग स्थानों पर उत्पन्न होता है। शीत अर्थात ठंड लगने पर लिहाफ, कम्बल या मोटी चादर ओढ़नी पड़ती है, दांत बजने लगते हैं, वमन होता है, बार-बार जल्दी-जल्दी पेशाब होता है, तेज प्यास लगती है, हाथ-पैर ठंडे रहने पर भी थर्मामीटर लगाने पर ज्वर प्राप्त होता है।

उत्तापावस्था – इस अवस्था में शरीर बहुत गरम हो जाता है। किसी को एक बार सर्दी और एक बार गर्मी मालूम होती है। यदि ताप पूरी तरह प्रकट हो जाता है, तो ज्वर 106-107 डिग्री तक चढ़ सकता है (यदि किसी दूसरे ज्वर में ताप इतना बढ़ जाए, तो जान का डर हो जाता है, लेकिन मलेरिया-ज्वर में इतना चढ़ जाने पर भी डर की कोई बात नहीं रहती), माथे में बहुत दर्द, प्यास, पित्त का वमन, शरीर में दाह, प्रलाप, शरीर के वस्त्र उतार फेंकना, शरीर, हाथ-पैरों में मरोड़ होना इत्यादि लक्षण प्रकट होते हैं।

पसीने वाली अवस्था – इसमें खूब पसीना आता है, इस पसीने से वस्त्र और बिस्तर आदि सब भीग जाते हैं। सिर का दर्द घटने लगता है, भूख लगती है, प्यास बंद हो जाती है (कभी-कभी प्यास रहती भी है); उत्ताप घट जाता है और रोगी स्वस्थ हो जाता है। रोगी को कमजोरी के अलावा और कोई तकलीफ मालूम नहीं होती।

प्राय: देखने में आता है कि मलेरिया-ज्वर किसी न किसी बंधे समय पर आता है, पर कभी-कभी उसमें व्यक्तिक्रम भी हो जाता है। इसको तीन श्रेणियों में विभक्त किया गया है-(1) कोटिडियन, (2) टर्शियन, (3) क्वार्टन। ज्वर एक दिन, दो दिन और तीन दिन के बाद ही पारी बांधकर आता है, लेकिन ऐसा न होकर यदि दिन में दो बार ज्वर आए, तो उसे ‘कोटिडियन’ ज्वर कहते हैं। नित्य ज्वर आता है, लेकिन ‘टर्शियन’ और तीन दिनों में ही ज्वर उतर जाता है, एक दिन नहीं आता, ऐसे ज्वर को ‘क्वार्टन’ कहते हैं। इस तरह का अन्य मलेरिया भी है, उसमें ज्वर का कोई विशेष बंधा नियम नहीं प्राप्त होता, इसको इरेगुलर फीवर (अनियमित-ज्वर) कहते हैं।

मलेरिया की जितनी भी श्रेणियां हैं, उनमें ‘पर्निशस’ या दूषित मलेरिया का ज्वर ही बहुत सांघातिक होता है। इसका रोगी प्राय: आरोग्य नहीं होता, वह मर जाता है। यह ज्वर पहले साधारण मलेरिया की तरह के लक्षणों के साथ ही होता है । तत्पश्चात दो-एक बार सविराम या स्वल्पविराम ज्वर का आकार ग्रहण कर, अंत में पर्निशस का उग्ररूप धारण करता है। इसका दो-तीन बार आक्रमण होने के बाद रोगी की इहलीला समाप्त हो जाती है।

शीतावस्था में पित्त-विकार के सभी लक्षण पाए जाते हैं। जिह्वा मैली, श्वास में बदबू भूख लगना, कब्ज, सभी पेशियों में विशेषकर घुटनों और कमर में दर्द, शियाटिका (गृध्रसी वात), पैर की पोटली में ऐंठन, स्नायविक उत्तेजना, कपाल के सामने वाले भाग में दर्द आदि लक्षण प्रकट होते हैं। यदि पहले सर्दी लगकर पीछे ज्वर आता है, तो प्रबल वमन होता है। उत्तापावस्था में नाड़ी तेज, हृत्पिण्ड की क्रिया की उत्तेजना, उच्च ताप (105 डिग्री या अधिक), बहुत अधिक पित्त-वमन और तलपेट, लीवर और प्लीहा के स्थान पर हाथ नहीं लगाया जाता, ऐसा दर्द रहता है; रोगी क्रमशः दुर्बल और रक्तहीन हो जाता है। इस तरह के रोग में कभी-कभी पतले दस्त, रक्त के दस्त और हैजा की तरह के लक्षण उत्पन्न हो जाते हैं। इसमें शीत और पसीने वाली अवस्था या तो बहुत थोड़ी रहती है अथवा एकदम नहीं रहती, उत्तापावस्था ही प्रबल रहती है।

दस्त और कै के साथ होने वाले ज्वर में हैजा के समस्त लक्षण रहते हैं। दस्त, कै, तेज, प्यास, नाड़ी क्षीण, तेज श्वास-प्रश्वास, गले की आवाज बैठी हुई, ऐंठन, पेशाब बंद या थोड़ा, नाड़ी लोप आदि लक्षण देखने में आते हैं। रोगी को शीत हो जाता है (यहां शरीर बरफ की तरह ठंडा रहने पर भी भीतर उच्च ताप रह सकता है)। इसमें भी रोगी अत्यन्त दुर्बल होकर मर जाता है।

रोगी में अत्यधिक स्नायविक दुर्बलता आ जाए, हृत्पिण्ड की क्रियाहीनता हो, तो अनियमितता दिखाई देती है। ऐसे रोगी को बहुत अधिक पसीना आता है और वह बहुत ज्यादा कमजोर हो जाता है और यह कमजोरी ही उसकी मृत्यु का कारण बन जाती है। कभी-कभी रोगी के मस्तिष्क में रक्त की अधिकता हो जाने के कारण प्रबल प्रलाप बकता है, इसके बाद गहरी बेहोशी या कोमा आ जाता है, शरीर लाल या नीला हो जाता है। मस्तिष्क-झिल्ली-प्रदाह के लक्षण दिखाई देते हैं।

यदि ज्वर पहले धीमा या स्वल्पविराम रहकर, दूसरी बार बड़े वेग से आक्रमण करे, तो मस्तिष्क में रक्त-संचय होता है, रोगी में उद्वेग और बेचैनी बढ़ जाती है, पेशाब थोड़ा-थोड़ा होता है। वमन, सिरदर्द, उच्च ताप, तीव्र प्रकार के ज्वर में प्रलाप, बेहोशी, श्वास-कष्ट और यकृत तथा गुर्दे के स्थान पर तेज दर्द होता है। एकाएक शरीर पीला पड़ जाता है। नाक, मुंह, पाकाशय, मलद्वार, ज्ञानेन्द्रिय आदि से रक्तस्राव होकर रोगी की मृत्यु हो जाती है।

मलेरिया ज्वर में क्या खाएं – साबू, बार्ली, आरारोट आदि, इसके साथ मिश्री का चूर और नींबू का रस मिलाकर दें। ज्वर के समय यदि कै आती हो तो केवल थोड़ा-सा गरम पानी पिलाना अच्छा रहता है, इससे प्यास भी दूर हो जाएगी और वमन में भी लाभ होगा। ज्वर उतर जाने पर गरम दूध, दूध-साबू आदि देना चाहिए। ज्वर आना बंद हो जाने पर सूजी की रोटी, छोटी मछलियों का शोरबा, दो-चार दिन बाद दिन में पुराने चावल का भात, गूलर, कच्चू, कच्चा केला, परवल, बैंगन, केले के फुल आदि की तरकारियां और शाम को रोटी देनी चाहिए। प्रतिदिन दिन में गरम पानी से शरीर पोंछ देना चाहिए।

औषध चुनते समय की सावधानी – (1) रोगी के लक्षण खूब अच्छी तरह खोज-खोजकर निकालना, (2) रोग के लक्षणों के साथ औषधि के लक्षण मिलाकर औषध देना, (3) रोग-लक्षणों का श्रेणी-विभाग करना अर्थात पहले में रोगी का विशेष लक्षण, दूसरे में आरंभ से लेकर अंत तक ज्वर होते रहने के समय का लक्षण और तीसरें में ज्वर न रहने के समय के लक्षण-इन तीनों को अच्छी तरह देखना चाहिए; (4) रोगी की धातु को विशेष रूप से लक्ष्य करना; (5) यह अच्छी तरह से जान लेना कि पहले कौन-सी औषधियां दी गई हैं, क्योंकि पहले ऐलोपैथी या यूनानी चिकित्सा होने पर उन औषधियों को भेषज क्रिया की वजह से ठीक रोगी के लक्षणों की तरह कितने ही लक्षण रोगी में दिखाई देते हैं, (6) रोग-लक्षण के साथ ऊपर कही अन्य चिकित्सा-प्रणालियों की किसी औषधि की भेषज क्रिया के लक्षण स्थित रहें, तो होम्योपैथिक मत से उस औषध के द्वारा साधारणत: कोई लाभ नहीं होगा, जैसे एलोपैथिक मत से अनावश्यक आर्सेनिक का प्रयोग होने पर-शरीर में दाह, शोध, आंखें फूलना आदि लक्षण हो सकते हैं, ऐसे स्थान पर आर्सेनिक की शक्तिकृत औषधि से कोई लाभ नहीं दिखाई देता और उपचार करना भी कठिन हो जाता है, इस समय निम्न दो-तीन उपाय करने पड़ते हैं:-

(1) रोगी को कोई औषधि न देकर, औषध के भेषज लक्षण की आप से आप दूर हो जाने देना।

(2) ठीक उसी समय जो-जो लक्षण दिखाई दें, उसी प्रकार की एक दूसरी औषधि को चुनकर देना।

(3) यदि बहुत ही आवश्यक हो, तो पहले दी हुई औषधि की बहुत उच्च शक्ति व्यवहार करना ।

(4) रोगी के लक्षणों में परिवर्तन होने पर औषधि को बदल देना।

(5) रोग का कोई भी उपसर्ग बहुत ही प्रबल और कष्टदायक हो, तो उसे तुरंत दूर करना आवश्यक है। यद्यपि लक्षण समूह के सदृश औषधि देने से ही उपसर्ग दूर होते हैं, तथापि बहुत ज्यादा तकलीफ देने वाले उपसर्गों के विभिन्न बाहरी या भीतरी, किसी दूसरी तरह के उपाय की आवश्यकता रहती है। यदि कोई उपसर्ग बहुत प्रबल हो जाए और ज्वर का लक्षण दबाकर रखे, तो केवल उपसर्ग-लक्षणों की ही चिकित्सा करने पर ज्वर आप से आप दूर हो जाता है।

शीत (जाड़ा) लगने के समय के अनुसार औषधियां – नित्य तीसरे पहर 1 बजे आर्स। 2 बजे – कैल्केरिया कार्ब, आर्सेनिक, लैकेसिस। 3 बजे एपिस, सीड्रन। 3 से 4 बजे – लैकेसिस, थूजा। 7 बजे से 8 बजे तक – लाइकोपोडियम। 4 बजे – इस्क्युलस। 5 बजे – सिंकोना। संध्या 6 बजे – हिपर, कैलि कार्ब। 7 बजे-हिपर, लाइको, रस, इपि। ज्वर का समय नित्य पीछे हटते जाना – चिनि सल्फ, सिंकोना, नक्सवोमिका। दोपहर के समय – जेल्सीमियम। आधी रात के समय – आर्सेनिक नक्सवोमिका। रात के 1 बजे से 2 बजे तक – आर्स। रात के 3 बजे – थूजा। सवेरे 5 बजे – सिंकोना। सवेरे चिनि सल्फ। सवेरे 9 बजे से 11 बजे – बैप्टीशिया, बोलिटस, कैकृस, नक्सवोमिका, नैट्रम म्यूर।

ज्वर का निश्चित समय पर आना – एरानिया, कैल्के, आर्स, कैकृस, सीड्रन, चिनि सल्फ, इपि, सिंकोना, इयुकैलिप्टस।

प्रत्येक बसंत ऋतु में – कार्बोवेज, लाइकोपोडियम, सल्फ।

जाड़ा लगने के समय – ब्रायोनिया, कैप्सिकम, इयुपेट पर्फो, चायना, नैट म्यूर।

जाड़ा लगने के बाद प्यास – आर्सेनिक।

शीत के समय – एकोन, ब्रायो, कैप्सि, कार्बो, कैमो, सिना, इग्ने, नैट म्यूर, नक्सवो, रस-टक्स, वेरेट, एण्टिम टार्ट, आर्निका, आर्सेनिक, कैल्के, सिंको, हिपर, इपि, सल्फ।

कंप के बाद या उत्ताप के पहले – आर्स, सिंको, ड्रोसेरा, पल्स, सैबाडिला, थूजा।

उत्ताप के समय प्यास न रहना – आर्स, कैम्फर, कैप्सि, काबों, चेलिडोन।

उत्ताप के बाद प्यास – ऐमोन म्यूर, सिंकोना, नक्सवो, ओपि, पल्स।

पसीने के बाद प्यास – लाइको, नक्सवो, सैबाडिला ।

प्यास न रहना – चिनि सल्फ, साइमेक्स, सिंकोना, इयुपेट पर्प, जेलसि, नैट म्यूर।

उत्ताप के पीछे कंपकंपी – कैल्के, कैप्सि, नक्स, सल्फ, लाइको।

रोग-लक्षणों पर भरपूर दृष्टि रखकर उपचार करना चाहिए (क्योंकि उपरोक्त सब ज्वरों का उपचार एक साथ ही लिखा गया है), ज्वर के न रहने पर अर्थात विरामावस्था में ही औषध का सेवन कराना चाहिए।

बैराइटा-कार्ब 6, 30 – इसमें शीत, ताप और पसीना – इन तीनों अवस्थाओं में से किसी में भी प्यास नहीं रहती, इस लक्षण में औषध का व्यवहार होता है।

कैप्सिकम 6 – जाड़ा लगने के पहले ही प्यास लगती है (प्रात:काल), ज्वर के समय पित्त की कै होती है, उष्णावस्था आरंभ होने के कुछ देर बाद थोड़ा पसीना आता है, किंतु पसीने वाली अवस्था में प्यास नहीं रहती, हड्डियों में दर्द आदि लक्षणों में यह औषध लाभदायक है।

साइमेक्स 30 – शीत वाली अवस्था में शरीर की संधियों में (विशेषकर घुटनों में) इतना दर्द होता है कि वहां की पेशियां और arteries छोटी मालूम होने लगती हैं। कंपकंपी के साथ या कंप के पहले प्यास, पसीना, सिर भारी, शीत के आरंभ होते समय मुट्ठी बांधे रखना, जाड़ा छूटने पर तेज प्यास और पानी पीने के बाद ही पेशाब होना आदि लक्षणों में यह औषध देनी चाहिए। इससे उपकार अवश्य होगा।

किनिन सल्फ 1x, 3x चूर्ण – यदि नवीन सविराम मलेरिया ज्वर में शीत, ताप और पसीना-यें तीनों अवस्थाएं क्रम से रोगी के शरीर में स्पष्ट दिखाई देती हों (अर्थात शीत, ताप और पसीना-इन तीनों अवस्थाओं में किसी तरह का उलट-फेर या कमी), इसके बाद विराम अवस्था (ज्वर न रहना) भी हुआ करती है। ऐसी स्थिति में, जब ज्वर न रहे, तब तीन घंटे का अंतर देकर यह औषध देनी चाहिए।

युपेटोरियम-पर्फ 3 – ज्वर आने के पहले ही यदि मिचली हो और पीठ में जाड़ा लगकर ज्वर आरंभ हो और ठंड लगने से पहले ही ताप बढ़ने तक प्यास रहती हो और पानी पीने के बाद कै हो जाती हो या पित्त की कै होती हो, उष्णावस्था के बाद हिलने-डुलने पर दर्द घटता न हो, तब यह औषध देनी चाहिए।

आर्सेनिक ऐल्बम 3, 6, 30, 200 – पुराने विषम-ज्वर में और उसके साथ-साथ ही प्लीहा और यकृत आदि के बढ़ने पर आर्सेनिक बहुत लाभ करती है। जब शीत या उष्णावस्था का पूरी तरह विकास नहीं होता या किसी एक की अधिकता या किसी एक की कमी हो, पसीना बिल्कुल ही न हो, दाह या उष्णता के बहुत देर बाद और बहुत देर तक अधिक पसीना आता रहे, यकृत और प्लीहा बढ़ जाए, ज्वर के समय की बेचैनी और दर्द, बकना (प्रलाप) और ज्वर के न रहने पर भी इस उपसर्ग के साथ कमजोरी और सुस्ती रहे, तो इस औषधि से अधिक लाभ होता है। एक दिन, दो दिन और तीन दिन के अंतर से आने वाले शीत-ज्वर में, नित्य दो-तीन बार ज्वर आने पर, क्विनाइन का अपव्यवहार होने के कारण उत्पन्न विष-ज्वर में (धीमे ज्वर में, प्लीहा, यकृत-संयुक्त पुराने ज्वर में शोथ) यह औषधि बहुत लाभदायक है। हाथ-पैर ठंडे होकर ज्वर आरंभ होता है, कंपकंपी आरंभ होने के पहले ही शरीर का ताप बढ़ जाता है और जलन की तरह दाह होने लगती है, प्यास रहती है और पानी पीने के साथ ही प्यास कम हो जाती है, श्वास में कष्ट, पानी या पतला पदार्थ पीने से मिचली या वमन, जिह्वा साफ, हर बार ज्वर छूटने के बाद ही रोगी बहुत कमजोर हो जाता है। रात में बारह बजे के बाद से रोग बढ़ जाता है, ऐसे लक्षणों में आर्सेनिक बहुत लाभ करती है।

आर्निका 30, 200 – (प्रात: आने वाले विषम-ज्वर में) शीत आरंभ होने के पहले बहुत जम्हाई, बहुत कमजोरी, हड्डीओं के भीतर तीव्र दर्द, नर्म बिस्तर भी कड़ा प्रतीत होता है, इसी कारण से रोगी करवटें बदलता रहता है, माथा और चेहरा गरम हो जाता है (पर दूसरे अंग ठंडे रहते हैं), पसीना नहीं आता या पसीने में खट्टी दुर्गन्ध आती है आदि लक्षणों में इस औषधि के व्यवहार से लाभ होता है। (सामान्य-ज्वर में) भीतर शीत और बाहर ताप मालूम हो, पानी पीने पर ठंड बढ़ जाती हो आदि लक्षणों में यह औषधि लाभप्रद है। यदि ज्वर का अच्छी तरह उपचार न हुआ हो अथवा क्विनाइन का अपव्यवहार हुआ हो, तो आर्निका देना अच्छा रहता है।

इपिकाक 3x, 6, 30 – पाकस्थली की क्रिया की गड़बड़ी के कारण ज्वर होना, खाने-पीने के दोष से ज्वर, मिचली या कै; जिह्वा पीली, जाड़ा मालूम हो, किंतु गर्मी बहुत समय तक स्थायी रहे, ज्वर आने के पहले जम्हाई, अंगड़ाई लेना, बाहरी गरम प्रयोग से जाड़ा बढ़ जाना, उष्णावस्था में तेज प्यास, पर जाड़ा लगते रहने पर प्यास का न रहना, उष्णावस्था के बाद बहुत पसीना, हरे रंग के आंव भरे पतले दस्त, मुंह का स्वाद तीता। क्विनाइन के अपव्यवहार के कारण उत्पन्न ज्वर में, मलेरिया से उत्पन्न पुराने ज्वर में (विशेषकर एक दिन के अंतर से आने वाले ज्वर में), यदि प्रधान लक्षण प्रकट न हों, तो इपिकाक 30 देना चाहिए। इसके बाद जब अन्य लक्षण स्पष्ट प्रकट हो जाएं तो उन लक्षणों के अनुसार औषध चुननी चाहिए। एक प्रसिद्ध चिकित्सक का मत है कि सविराम-ज्वर में इपिकाक देने पर अधिकांश स्थानों में या तो ज्वर अच्छा हो जाता है अथवा लक्षणों को साफ प्रकट कर देता है। उस समय औषधि का चुनना बहुत सहज हो जाता है।

इग्नेशिया 6, 12, 30 – (विषम-ज्वर में) केवल जाड़ा लगने वाली अवस्था में प्यास, ताप या पसीने वाली अवस्था में प्यास का न रहना, बाहरी गर्मी से जाड़े का कम हो जाना, बाहर जाड़ा और भीतर ताप महसूस होना या भीतर जाड़ा और बाहर ताप महसूस होना; ताप वाली अवस्था में सिर भारी और चेहरा दबा हुआ रहता है, शोक-दुख के कारण आया ज्वर। (सविराम-ज्वर में) सारे शरीर में खुजली, बदन में जुलपित्ती की तरह फुसियां, चेहरे के एक भाग में जलन करने वाला दाह, पसीना कम या केवल चेहरे पर ही पसीना होता है, तीसरे पहर के समय समूची देह में तेज गर्मी मालूम होती है, किंतु प्यास नहीं रहती।

एण्टिम-क्रूड 6 – (विषम-ज्वर) नाड़ी का वेग नियमित, बहुत जाड़ा, यहां तक कि गरम कमरे में भी जाड़ा नहीं घटता, प्यास नहीं रहती, रात में तलवे ठंडे हो जाते हैं। सवेरे सोकर उठने के समय पसीना आता है, जिह्वा सादी या सफेद मैल चढ़ी, कब्जियत या पतले दस्त; खट्टी चीजें खाने की इच्छा, रोगी बराबर सोया रहना चाहता है; बूढ़े और मोटे-ताजी लोगों के रोग में इससे विशेष लाभ होता है।

पोडोफाइलम 6 – सवेरे आने वाले ज्वर में और इसके साथ ही पतला दस्त होने पर (हर बार के दस्त का रंग बदला हुआ रहता है), जिह्वा पर सफेद लेप चढ़ी रहती है, भूख नहीं लगती, श्वास में दुर्गन्ध रहती है, प्लीहा ओर यकृत-प्रदेश में दर्द, शीतावस्था आरंभ होने के पहले पीठ में तेज दर्द, पसीने वाली अवस्था में नींद आ जाती है।

सिना 2x, 200 – कृमि के कारण पैदा हुए बच्चों के ज्वर में, ज्वर प्राय: नहीं उतरता, नाक खुजलाती है, भूख रहती है, किंतु प्यास नहीं रहती; कभी-कभी तो ज्वर किसी तरह भी पिंड नहीं छोड़ता, भूख नहीं लगती या दूषित भूख रहती है। यदि बच्चा लगातार नाक खुजलाता हो या उसके दोनों गाल लाल हों, तो सिना के प्रयोग से ज्वर उतर जाता है।

इलाटेरियम 3, 6 – प्रातःकाल आने वाला ज्वर, ज्वर उतर जाने पर आमवात हो जाता है, जुलपित्ती निकल आती है, खुजलाने से आराम मालूम होता है। ऐसे लक्षणों में यह औषधि लाभकारी है।

रस-टॉक्स 6, 30 – यदि सविराम-ज्वर बदलकर एक-ज्वर हो जाए, पानी में भीगने या गीले कपड़े पहनने की वजह से ज्वर आया हो, बेचैनी, रोगी बिस्तर पर हमेशा करवट बदलता रहे, कमर में दर्द, अतिसार, रक्त मिले पतले दस्त आदि लक्षणों में इस औषधि से लाभ होता है। डॉ० डनहम के मत से-जिस ज्वर में जाड़ा लगने के कई घंटे पहले कष्ट देबे वाली और सुस्त कर देने वाली खाँसी आती है और यह खांसी जब तक जाड़ा रहता है, तब तक मौजूद रहती हो, तो उस ज्वर में रस-टॉक्स अत्यन्त लाभकारी सिद्ध होती है।

फास्फोरिक एसिड 2x, 6 – तेज जाड़ा और कंपकंपी, शरीर का ताप बहुत अधिक, कमजोर करने वाला पसीना, शीत और ताप वाली अवस्था में प्यास नहीं रहती, पर पसीने वाली अवस्था में तेज प्यास रहती है; उदास भाव, गहरी निद्रा, प्रलाप, सिर में दर्द, बिना कष्ट का उदरामय, स्वप्नदोष और रक्तस्राव आदि लक्षणों में इस औषधि का प्रयोग होता है।

ऐरानिया 6 – जाड़ा या कंपकंपी तेज और बहुत देर तक यह स्थिति रहती है (कम से कम 24 घंटे तक); दिन-रात जाड़ा मालूम होता है, ताप और पसीने वाली अवस्था बिल्कुल नहीं होती (अर्थात शरीर में ताप या पसीना नहीं होता), प्यास नहीं लगती, पानी में भीगने या गीली जगह में रहने की वजह से ज्वर, प्लीहा बढ़ी हुई रहने पर इससे अच्छा लाभ होता है।

हाइड्रेस्टिस Q – रोगी के शरीर में मलेरिया का विष रहने के कारण धातु-विकार, यकृत और पाकाशय की गड़बड़ी के लक्षणों में इस औषध का प्रयोग होता है।

एण्टिम टार्ट 3 विचूर्ण या 6 – (विषम-ज्वर में) शीतावस्था में प्यास की कमी, जांघ में दर्द, सारे शरीर में शीत और कंपन, ठंडा लसदार पसीना, समस्त शरीर में बहुत अधिक दाह, ज्वर के समय औंघाई आने लगती है।

कार्बोवेज 6, 30 – (विषम-ज्वर) नाड़ी क्षीण ओर तेज, संध्या के समय शीत ज्यादा मालूम होती है, कभी-कभी शरीर के केवल एक बगल में ही जाड़ा मालूम होता है, जाड़ा शुरू होने के पहले हाथ-पैर ठंडे हो जाते हैं और प्यास लगती है। धूप लगने के कारण ज्वर, शीतावस्था में प्यास, इसके बाद ही तेज दाह, फिर कमजोर करने वाला खट्टी गंध मिला पसीना आता है। जाड़ा लगने से पहले सिरदर्द, अंगों मं दर्द, हाथ-पैर और श्वास ठंडी, चेहरा लाल, रोगी बराबर हवा करने को कहता है। मकरी या क्विनाइन के कारण उत्पन्न ज्चर में लाभदायक है।

ओपियम 6, 30 – (नए ज्वर में) नाड़ी भारी, चाल धीमी, रोगी गहरी नींद में मुंह खोले रहता है। उसकी नाक से ‘घर्र-घर्र’ की आवाज होती है। शीत, उत्ताप और पसीना-इन तीनों अवस्थाओं में ही नींद आती है। पसीना आने के बाद तेज दाह होती है। (विषम-ज्वर में) बहुत शीत और कंपकंपी लगकर ज्वर आता है, प्रबल शीतावस्था में नींद आती है और अंग फड़कते हैं, प्यास नहीं रहती। उष्णावस्था में प्यास और पसीना होता है, आंखें अधखुली रहती हैं। बच्चों और बूढ़ों के ज्वर में इस औषधि से लाभ होता है।

कैक्टस 1 – (विषम-ज्वर) ठीक एक ही समय (विशेषकर दोपहर के समय) जाड़ा लगकर ज्वर चढ़ता है, इसके बाद छाती में जलन-सी महसूस होती है और श्वास तेज हो जाती है। अंत में शीतावस्था में बूंद-बूंद पसीना आता है। तेज प्यास, पीठ में सर्दी और हथेलियां बर्फ की तरह ठंडी रहती हैं।

चायना 3x, 6, 200 – सबसे पहले तो यह स्मरण रखें कि चायना के लक्षणों वाला ज्वर कभी रात में नहीं आता, रोगी की नाड़ी क्षुद्र, द्रुत और अनियमित; भोजन के बाद नाड़ी का वेग कम, तंद्रा, प्लीहा और यकृत का बढ़ना, दर्द, पानी या गोंद की तरह लसदार या पित्त मिले दस्त, शीत और उष्णता से पहले या बाद में प्यास, ज्वर आरंभ होते ही हृत्पिण्ड का धड़कना या हिलना, सिर में तेज दर्द, कपाल की शिराएं फूली हुई, शीतावस्था में सिरदर्द, समूचे शरीर में जाड़ा मालूम होना, मिचली और प्यास अधिक लगती है। शीतावस्था और उष्णावस्था में प्यास नहीं रहती, उष्णावस्था के बाद प्यास लगती है और बहुत पसीना आता है। इन लक्षणों में तो चायना लाभ करती है, किंतु क्विनाइन के अपव्यवहार से उत्पन्न हुए विषम-ज्वर में चायना से कोई लाभ नहीं होता।

जेल्सीमियम 1x, 6 – नाड़ी क्षीण, कोमल, तेज, पीठ में सर्दी लगकर ज्वर आता है। पीठ या समूचे शरीर में तीव्र दर्द, रोज तीसरे पहर के समय ज्वर आता है, हाथ-पैर बर्फ की तरह ठंडे रहते हैं, चेहरा लाल रहता है। उत्तापावस्था में रोगी स्थिर भाव से पड़ा रहता है, प्यास अक्सर नहीं रहती, जाड़े वाली अवस्था के अंतिम भाग में नींद आती है।

नक्स वोमिका 3x, 6, 30 – सवेरे के समय आने वाले ज्वर में, तीसरे पहर, संध्या के समय या रात में ज्वर आते ही हाथ-पैर ढीले पड़ जाते हैं। ज्वर आने के पहले बहुत जम्हाई आती है या शरीर टूटता है, भीतर जाड़ा और बाहरी ताप, या भीतर ताप और बाहरी जाड़ा मालूम होता है। तेज ताप मानो समूचा शरीर गर्मी से जला जाता है, विशेषकर चेहरा बहुत गरम और लाल हो जाता है और इतनी गर्मी मालूम होने पर भी जाड़ा लगने के कारण रोगी कपड़े नहीं उतारना चाहता। अत्यंत ताप वाली अवस्था में शरीर का कपड़ा उतारने से ही जाड़ा लगने लगता है, मिचली, कै, सिर में चक्कर, कब्जियत, शीतावस्था में कंपकंपी होकर जाड़ा लगता है, पानी पीने से जाड़ा बढ़ जाता है। शीत के पहले और पीछे उत्ताप, सवेरे या आधी रात के समय खट्टी गंध लिए पसीना। जो ज्वर नित्य आगे समय बढ़ाकर आता हो, उसे बंद करने की नक्स वोमिका अच्छी औषधि है।

सल्फर 30 – जाड़ा लगने के पहले प्यास, किंतु जाड़ा लगने पर प्यास नहीं रहती, तेज ताप मानो सारी शरीर जला देगा, दिन-रात बराबर यह ताप बना रहता है। रात के समय बहुत पसीना आता है। ज्वर उतरने पर रोगी सुस्त होकर पड़ जाता है। जिह्वा सफेद या पीली आभा लिए रहती है – इन सब लक्षणों में नए या पुराने ज्वर में यह औषधि बहुत लाभदायक है। किसी भी तरह का चर्म रोग हो जाने पर ज्वर आता है तो उसमें भी सल्फर लाभ करती है। यदि ऐसे स्थान पर सल्फर से लाभ न हो तो सोरिनम 30, 200 – देनी चाहिए। डॉ० ऐलन के मत से मलेरिया ज्वर में क्विनाइन की अपेक्षा सल्फर दी जाए तो रोगी की बहुत भलाई हो सकती है। सल्फर मलेरिया ज्वर में बहुत लाभकारी है।

लैकेसिस 30, 200 – नींद खुलने के बाद ही सब उपसर्गों का, शराबियों और रजोनिवृत्ति के समय स्त्रियों को होने वाला शीत-ज्वर, बगल के पसीने में लहसुन की गंध आती है, ज्वर के समय शरीर का रंग नीला हो जाता है, क्विनाइन के अपव्यवहार के कारण उत्पन्न ज्वर में यह औषधि लाभ करती है।

कैल्केरिया कार्ब 6, 30 – पुराना मलेरिया ज्वर, ज्वर उतर जाने पर कुछ न कुछ शेष रह जाता है, धीमा ज्वर, ग्यारह या दो बजे के समय ज्वर आता है। शीतावस्था में प्यास, गर्मी या पसीने वाली अवस्था में प्यास प्राय: नहीं रहती। अर्जीण के दस्त, कभी कब्ज, कभी पतले दस्त (जिन रोगियों का पेट बड़ा रहता है या जिन्हें सहज में ही सर्दी लग जाती है, उनके लिए यह औषधि अधिक लाभदायक है)।

कैल्केरिया-आर्स 6 चूर्ण – विषम-ज्वर, प्लीहा और यकृत का बढ़ना (खासकर बच्चों का), श्वास में कष्ट, कलेजे में धड़कन।

ऐलस्टोनिया Q, 3x – जीर्ण मलेरिया-ज्वर के समय रक्तामाशय और शरीर में रक्त की कमी।

कैमोमिला 6, 12 – बालकों या बच्चों का ज्वर, दांत निकलने के समय का ज्वर। पतले दस्त, बच्चों का स्वभाव चिड़चिड़ा, बच्चा गोद में चढ़कर घूमना चाहता है; बेचैन, एक गाल लाल व दूसरा मलिन रहता है। जिह्वा पीली, बार-बार बहुत पेशाब होता है। जाड़ा चढ़कर ज्वर आता है। उत्ताप और पसीने वाली अवस्था में प्यास रहती है, शरीर में एक जगह जाड़ा लगता है और दूसरी जगह गर्मी मालूम होती है।

नैट्रम-म्यूर 30 – दस-ग्यारह बजे दिन के समय बहुत जाड़ा और प्यास के साथ ज्वर आता है और उष्णावस्था में तथा उसके बाद बहुत तेज सिरदर्द होता है। शरीर एकदम जीर्ण, होंठों पर ज्वर के दाने, प्लीहा और यकृत बढ़े और दर्द, ज्वर उतरने पर सुस्ती और बहुत पसीना, पसीने वाली अवस्था में सब उपसर्ग कम हो जाते हैं, केवल सिरदर्द नहीं घटता। क्विनाइन या आर्सेनिक के अपव्यवहार से उत्पन्न ज्वर में इससे लाभ होता है।

पल्सेटिला 6, 12, 30 – पाकाशय की क्रिया की गड़बड़ी के कारण उत्पन्न ज्वर या पैत्तिक-ज्वर, तीसरे पहर 1 से 4 बजे के भीतर ज्वर आता है। सूर्यास्त के समय बिना प्यास का ज्वर रहता है, जाड़ा बहुत देर तक रहता है और कंपकंपी होती है। तापावस्था बहुत थोड़ी देर तक ठहरती है, प्यास प्राय: नहीं रहती, बिना पसीने का असह्य उत्ताप (विशेषकर सवेरे और संध्या के समय), हाथ-पैरों में जलन मालूम होना, कभी-कभी जाड़े के कुछ देर बाद ही तापावस्था आ जाती है। इन लक्षणों में यह औषधि लाभ करती है।

लाइकोपोडियम और पल्सेटिला – दोनों औषधियों में एक ही समय (तीसरे पहर 4 बजे) ज्वर आता है; दोनों ही औषधियों में ज्वर के साथ पाचन-संबंधी लक्षण विद्यमान रहते हैं। लाइको के ज्वर के साथ पेट फूला रहता है, खट्टी डकार आती हैं, प्यास रहती है, रोगी गरम पानी पीना पसन्द करता है, पसीना आने के बाद प्यास बढ़ जाती है और पेशाब के साथ लाल तलछट निकलता है। पल्सेटिला में कितनी ही बार तेल या घी की बनी चीजें खाने के बाद ही ज्वर का आक्रमण होता दिखाई देता है। क्विनाइन के अपव्यवहार के कारण उत्पन्न ज्वर की पल्सेटिला लाभदायक और उत्कृष्ट औषधि है। यों पल्सेटिला के ज्वर में साधारणत: प्यास नहीं रहती। सभी प्रकार के ज्वरों में प्यास का न रहना, इसका निर्णायक लक्षण है। यहां यह याद रखना होगा कि उष्णावस्था में बहुत से रोगियों में पल्सेटिला के अन्यान्य लक्षणों में पानी की प्यास मौजूद रहती है।

फेरम-मेट 6, 30 – ज्वर में, विशेषकर प्लीहा बढ़ जाने पर और उसके साथ ही शोथ या पतले दस्त होने पर इसका प्रयोग होता है। नाड़ी भारी और पूर्ण, रह-रहकर जाड़ा और कंपकंपी, स्वाभाविक उष्णता की कमी, खाई हुई चीज की कै करना, बहुत देर तक पसीना आते रहना और पसीने वाली अवस्था में उपसर्गों का बढ़ना।

आर्टिका यूरेन्स – मलेरिया के कारण उत्पन्न फोड़ा, गठिया, प्लीहा या यकृत-दोष, अनिद्रा। मूल अरिष्ट 10 बूंद की मात्रा में एक औंस गरम पानी में डालकर नित्य दो बार सेवन करना चाहिए (इस तरह यह औषध सेवन करने पर यदि ज्वर का आक्रमण तेज हो अथवा बहुत देर तक शरीर गरम रहे, तो घबराने की कोई बात नहीं है। ज्वर खुद ही उतर जाएगा, यदि आवश्यकता हो तो नैट्रम-म्यूर 6x विचूर्ण 2-4 मात्रा देने से ही लाभ हो जाएगा।

कॉस्टिकम 6 – यदि आराम होने के समय पेशाब अधिक मात्रा में होता हो, तो इसे देना चाहिए।

म्यूरियेटिक एसिड 6 – रोगी बहुत सुस्त हो जाए और उसी अवस्था में बदबूदार मल होता हो तो इस औषधि का सेवन कराएं।

एपिस-मेल 3, 6, 30 – नाड़ी पूर्ण और तेज, पीठ, कोख और यकृत की जगह दर्द, तीता स्वाद, जिह्वा पीली, सिर भारी और सिर में दर्द। कभी जाड़ा और कभी गर्मी मालूम होना, पित्त का वमन या मिचली, कष्टकर खांसी। संध्या के पहले दाहिने अंग में जाड़ा, खुली जगह के मुकाबले बंद कमरे में ज्यादा सर्दी लगना, थोड़ी प्यास या प्यास का बिल्कुल ही न रहना, सिर गरम, कभी-कभी पसीना बहुत ज्यादा और पसीने वाली अवस्था में नींद, सूखी और रूखी देह, शोथ, प्रलाप, एकाएक जोर से चिल्ला उठना, स्पर्श का ज्ञान और हिलने-डुलने की शक्ति का लोप हो जाना, थोड़ा पेशाब और जिह्वा फूली-सी रहती है।

नैट्रम-सल्फ 30, 200 – तर, सीलन-भरी जगह या कोठरी में रहने के कारण मलेरिया-ज्वर। अंधड़-पानी होने पर या नहाने के बाद ज्वर का दुहरा जाना। प्रमेह-विष-दूषित व्यक्तियों का ज्वर, तीसरे पहर 4 से 8 बजे के भीतर जाड़ा लगकर ज्वर आरंभ होता है। शीत और पसीने वाली अवस्था में प्यास नहीं रहती, ऐसे में इस औषधि से उपकार होता है।

थूजा 30, 200 – प्रमेह-विष-दूषित धातु वाले व्यक्तियों के लिए तथा जो थोड़ी भी गीली हवा लगने के बाद ही रोगी हो जाते हैं, ऐसे व्यक्तियों के लिए यह विशेष उपयोगी है। साधारणत: थूजा का ज्वर सवेरे 3-4 बजने के समय जाड़ा देकर आता है, खूब शीत रहता है, गरम हवा, यहां तक कि धूप में भी जाड़ा नहीं घटता, खूब जम्हाई आती है। सारे शरीर को कंपा देने वाली ठंड रहती है; ठंड विशेषकर उरु-प्रदेश से आरंभ होती है; ठंडी हवा सहन नहीं होती, तब इस औषधि से लाभ होता है।

विरेट्रम-विरिड 1, 3x – नाड़ी भारी और कठिन, तेज और उछलती हुई, शरीर बहुत गरम, जोर-जोर से कलेजा धड़कना और मिचली के साथ सर्दी, प्रबल ऐंठन, माथे में रक्त इकट्ठा होता है।

विरेट्रम ऐल्बम 3x, 30 – सवेरे 6 बजे प्यास के साथ ठंड लगकर ज्वर चढ़ता है और बहुत देर तक ठंड लगती रहती है। शीतावस्था में प्यास के साथ समूचा शरीर ठंडा और अवसन्न, नाड़ी क्षीण, उष्णावस्था में कपाल में ठंडा पसीना, पसीने वाली अवस्था में चेहरा मुर्दे की तरह बदरंग हो जाता है। तीव्र मलेरिया ज्वर में यह औषधि बहुत लाभकारी है। जहां जीवनी-शक्ति बहुत जल्दी-जल्दी घटती जाती है, वहां यह औषधि संजीवनी की तरह काम करती है।

लाइकोपोडियम 1x, 30 – संध्या 4 बजे ज्वर आकर 8 बजे तक बढ़ता जाए, बहुत कंपकंपी और जाड़ा, सब अंगों में ठंड मालूम होना; कब्ज, पेट फूला हुआ, दाह, यकृत-प्रदेश में दर्द।

सिड्रन 1x, 2x, 2 – मस्तिष्क में रक्त-संचय, बहुत थोड़ा पसीना या बिल्कुल ही पसीना न होना, जाड़ा और कंपकंपी से ज्वर। प्रतिदिन एक ही समय ज्वर का चढ़ना। नीचे के स्थान या जलाशय से भरे स्थान का ज्वर।

ऐसिड कार्बोलिक 6, 30 – यह प्लीहा और यकृत के कारणवश सविराम और मलेरिया ज्वर में लाभदायक होती है। नालियों की सड़ी गैस से रक्त दूषित होकर प्रसव के बाद सूतिका-ज्वर में और सैप्टिक-ज्वर में इससे लाभ होता है। कोई भी जीवाणु यदि रोग का कारण हो, तो इसका भीतरी और बाहरी प्रयोग करने पर वे जीवाणु नष्ट हो जाते हैं और रोग आरोग्य हो जाता है। सविराम ज्वर में, ऐसिड कार्बोलिक(शीतावस्था में) बहुत ज्यादा जाड़ा, जरा हवा लगने से ही जाड़ा लगने लगता है, इतना जाड़ा कि आग तापने पर भी जाड़ा नहीं जाता, रोगी में औंघाई का भाव रहता है। (उत्तापावस्था में) उत्ताप और गर्मी मालूम होती है, फिर बीच-बीच में सर्दी भी मालूम होती है। (पसीने वाली अवस्था में) खूब पसीना आता है, रात में पसीना ज्यादा आता है, कपड़े आदि सब भीग जाते हैं। कार्बोलिक का ज्वर मानो छूटना ही नही चाहता, नित्य तीसरे पहर कुछ-कुछ धीमा-धीमा ज्वर होता है। इसका विशेष लक्षण-सभी स्रावों में बदबू, इसलिए मल-मूत्र, यहां तक कि शरीर से भी बदबू आती है।

बैप्टीशिया 2x, 30 – बहुतों की धारणा है कि इस औषधि का केवल टाइफॉयड ज्वर में प्रयोग होता है, पर वास्तव में ऐसी बात नहीं है, रोगी और रोग लक्षणों को लेकर ही हमारी चिकित्सा-प्रणाली है। यदि मलेरिया-ग्रस्त रोगी को औंघाई आती है, चेहरा तमतमाया और लाल रंग का हो, भूख न लगती हो, अधीर भाव से कुछ देर तक चुपचाप पड़ा रहता है, मल-मूत्र, पसीना सब में बदबू रहती है। शरीर में दर्द रहता सुस्ती रहती है और सवेरे ज्वर भी कुछ घटा रहता है, फिर 9-10 बजे से बढ़ना आरंभ होता है। इन्फ्लुएन्जा ज्वर में भी लाभदायक है।

कैंचालागुआ 2x – संभवतः आप सभी ने देखा होगा कि पानी में कुछ देर तक हाथ डुबाये रहने पर अँगुलियों की त्वचा कुछ सिकुड़-सी जाती है, किसी भी ज्वर में यदि अंगुलियां इस तरह सिकुड़ जाएं, तो यह औषधि का व्यवहार करें।

कैम्फोरा 6, 30 – शरीर बर्फ की तरह ठंडा, बहुत शीत, तेज कंपकंपी, थरथराकर कांपना, सर्दी के कारण दांत बजने लगते हैं। किंतु आश्चर्य का विषय यह है कि इस समय रोगी शरीर पर वस्त्र नहीं रखता, बल्कि उसे ठंडक की ही इच्छा होती है। इसके अलावा जब शरीर गरम और शरीर में ताप का संचार होता है, उस समय शरीर ढांप लेना चाहिए। ज्वर में यदि किसी रोगी में उक्त अद्भुत लक्षण दिखाई दे, तो कैम्फोरा का प्रयोग करें। सविराम-ज्वर में (शीतावस्था में) शरीर पत्थर की तरह ठंडा रहता है, नाक, आंख, मुंह बैठ जाते हैं, बहुत देर तक स्थायी शीत रहता है; रोगी शरीर पर का कपड़ा उतार फेंकता है, ठंडी हवा चाहता है; (उत्तापावस्था में) बहुत थोड़ी देर तक ठहरने वाला उत्ताप, इस अवस्था में रोगी शरीर पर वस्त्र ओढ़ लेता है। (पसीने वाली अवस्था में) उत्ताप के बाद ही पसीना, पसीना बहुत अधिक होता हे, उससे रोगी को बहुत कमजोरी आ जाती है, किसी भी अवस्था में प्यास नहीं रहती। यह औषधि सभी अवस्थाओं में दी जा सकती है।

कार्नस फ्लोरिडा 2x, 3, 6 – डॉ० हेल का कथन है कि क्विनाइन के अपव्यवहार से उत्पन्न हुए सविराम-ज्वर में इस औषध के व्यवहार से विशेष लाभ होता है। इसका साधारण लक्षण है-ज्वर आने के कुछ दिन पहले से रोगी में मानसिक अवसन्नता रहती है, सिरदर्द होता है और हमेशा ही औंघाई आया करती है। (शीतावस्था में) शीत के साथ लसदार पसीना आता है। (उत्तापावस्था में) जी मिचलाना, पित्त का वमन और पानी की तरह पतले पित्त के दस्त होते हैं, इस अवस्था में बहुत तेज सिरदर्द होता है और रोगी आच्छन्न भाव से पड़ा रहता है। रोगी का शरीर गरम रहता है, पर भीतर उसे शीत का अनुभव होता है। इसके रोगी में पेट का दोष, बदहजमी और अम्ल की शिकायत रहती है।

इयुकैलिप्टस ग्लोब 2x, 3x – एक प्रकार का मलेरिया या सविराम-ज्वर है, जो किसी भी तरह जाना ही नहीं चाहता। दो-चार दिनों तक रोगी खूब अच्छा रहता है, फिर एकाएक ज्वर आ जाता है और बहुत दिनों तक यह ज्वर कायम रहता है। जिस ज्वर में पहले प्लीहा बढ़ती है, वात की तरह शरीर में दर्द होता है, दर्द के कारण शरीर पर हाथ नहीं लगाया जाता, प्लीहा अच्छी तरह बढ़ी रहती है। इस ज्वर में यह औषध लाभ करती है। यदि प्लीहा-ज्वर के साथ बदबूदार पतले दस्त आते हों या पीब की तरह कोई पदार्थ निकलता हो अथवा पीब की तरह कोई जख्म रहे, तो इससे शीघ्र लाभ होगा।

सियानोथस 9, 2x, 3x – यह औषध भी बढ़ी हुई प्लीहा और ज्वर में विशेष लाभदायक है। कितने ही होम्योपैथ इसे प्लीहा की पेटेंट औषधि कहते हैं, पर वास्तव में ऐसी बात नहीं है। इयुकैलिप्टस के साथ प्रभेद कर और चिंतन करने पर ज्ञात होगा कि सियानोथस में प्लीहा खूब बड़ी और कड़ी रहती हैं, किंतु इयुकैलिप्टस की तरह प्लीहा बढ़ने के साथ-साथ दर्द, अतिसार, सिर और शरीर में दर्द आदि कुछ भी नहीं रहता। सियानोथस में प्लीहा में ऐंठन होती है, इसी ऐंठन के कारण रोगी कातर हो जाता है।

फेरम आर्स 30 – बराबर बना रहने वाला अविराम प्रबल ज्वर, बढी हुई प्लीहा, ज्वर के समय चेहरा प्रफुल्लित रहता है ओर ज्वर के न रहने पर (विराम काल में) रक्तहीन और सफेद हो जाता है, ज्वर के समय कब्ज या बल को क्षय करने वाला अतिसार, मल के साथ अर्जीण, खाया हुआ पदार्थ या आंव निकलती है, ज्वर का ताप बहुत देर तक बना रहता है आदि इसके विशेष लक्षण हैं। शीत, उत्ताप और पसीना-किसी भी अवस्था में प्यास नहीं रहती। डॉ० क्लार्क का कहना है कि जहां ज्वर नहीं रहता, केवल प्लीहा बढ़ी रहती है, वहां फेरम आयोड 3x, 6 अधिक लाभ करती है।

हेलोडर्मा 6, 30 – रोगी को भीतर इतनी सर्दी मालूम होती है, मानो वह बर्फ की तरह जम गया है। ठंड पैर से तरंग की तरह ऊपर चढ़ती है या पीठ से नीचे उतरती है। दाहिनी आंख के ऊपर भयानक दर्द। थोड़े समय के लिए समूचा शरीर गर्म हो जाता है, फिर तुरंत ही बरफ की तरह ठंडा हो जाता है और सर्दी मालूम होने लगती है। ऐसे में इस औषधि से बड़ा उपकार होता है।

हिपर सल्फर 30, 200 – इसके रोगी को सर्दी बिल्कुल ही सहन नहीं होती, तनिक हवा लगते ही वह स्वयं को अस्वस्थ अनुभव करने लगता है, इसलिए दरवाजे, खिड़कियों को बंद किये रहता है। संध्या के 6 से 7 बजे तक शीत मालूम होती है। शीतावस्था में-जुलपित्ती (आमवात) निकल आती है, पर उत्तापावस्था आते ही वह दूर ही जाती है (शीत घटने पर आमवात-एपिस, उत्तापावस्था में आमवात – इग्नेशिया, पसीने वाली अवस्था में आमवात-रस-टॉक्स), उत्तापावस्था में-दिन-रात पसीना आता है, पर उससे उपसर्ग अधिक नहीं घटते। शरीर से एक तरह की बदबू निकलती है, जिह्वा पर छाले निकल आते हैं।

मलेरिया आफिसिनैलिस 30, 200, 1000 – प्लीहा, यकृतजनित मलेरिया-ज्वर, कम्प-ज्वर और मलेरिया-ज्वर भोगने के बाद कमजोरी, सुस्ती, धातुदौर्बल्य इत्यादि में इससे विशेष लाभ होता है। मलेरिया नया हो या पुराना, हाथ-पैर ऐंठना, अंगड़ाई लेना, जम्हाई लेना, हमेशा ज्वर-सा मालूम होना, लेकिन ज्वर स्पष्ट न रहना, अरुचि, भूख न लगना इत्यादि लक्षणों में जब इसका प्रयोग किया जाता है, तो उससे विशेष लाभ होता है। आर्सेनिक, क्विनाइन सेवन कर ज्वर आरोग्य होने के कुछ दिन बाद, उन लक्षणों के साथ हमेशा ही ज्वर की तरह मालूम होता रहता है और शरीर न सुधरने पर इससे लाभ होता है। इसकी 30 या 200 शक्ति की 2-4 मात्रा देने से ही लाभ दिखाई देने लगता है।

सैबाडिला 3, 6, 30 – कोटोडियन (नित्य किसी एक समय पर आने वाला ज्वर), टार्शियन (ज्वर 48 घंटों पर आता है) और क्वार्टन (ज्वर 72 घंटों पर आता है) में यह औषधि लाभ करती है। सीड्रन, एरानिया आदि का ज्वर जिस तरह एक ही समय बांधकर आता है, इसमें भी ज्वर उसी तरह समय बांधकर एक ही समय आता है। ज्वर का समय-दिन के 3 बजे से 5 बजे तक या रात के 9 बजे से 10 बजे तक है। शीतावस्था-प्यास नहीं रहती, इस अवस्था में शरीर में दर्द, बहुत अधिक सूखी खांसी। शीत घटना आरंभ होते ही प्यास आरंभ हो जाती है, बहुत देर तक शीतावस्था रहती है। उत्तापावस्था-इसमें उत्ताप इतना स्पष्ट नहीं होता, प्यास बहुत थोड़ी रहती है। इसमें शीत जाकर उत्ताप आता है। इस प्रकार के समय पर प्यास अधिक होती है। हाथ-पैर ठंडे रहते हैं। पसीने वाली अवस्था में-रोगी सो जाता है, मस्तिष्क और मुंह पर खूब पसीना होता है, पैर के तलवों में पसीना आता है। रात्रि के अंतिम भाग में और सवेरे पसीना अधिक आता है। ज्वर छूटने पर-भूख न लगना, पित्त का वमन, खट्टी डकारें, पेट में भार, पेट फूलना आदि लक्षण में हमेशा शीत का भाव रहता है।

सिपिया 30, 200 – यह पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों को और विशेषकर नम्र स्वभाव वाली स्त्रियों के रोग में अधिक लाभ करती है। अधिकांश रोगियों को संध्या के समय ही जाड़ा देकर ज्वर आता है। जरा हिलने-डुलने पर ही रोगी को ठंड लगने लगती है, ठंड पीठ से आरंभ होती है। मस्तिष्क में अत्यधिक कष्ट होता है, रोगी सिर पर कपड़ा नहीं रख सकता। दिन के 11 बजे के समय भी पैर ठंडे होकर ज्वर आता है। सिपिया की यह विशेषता है कि रोगी जो कुछ भी खाता है, सब नमकीन मालूम होता है।

क्विनाइन का प्रयोग – मलेरिया की जितनी भी चुनी हुई औषधियां हैं, उनमें क्विनाइन, नैट्रम म्यूर, आर्सेनिक, नक्सवोमिका, इयुपेटोरियम, इपिकाक, सल्फर आदि इन कई औषधियों को ही श्रेष्ठ स्थान प्राप्त है। किसी होम्योपैथ को क्विनाइन का व्यवहार करते देखते ही लोग नाक-भौंह सिकोड़ने लगते हैं, यह उनका संपूर्ण भ्रम है। यदि किसी जीवाणु को मलेरिया का प्रधान कारण मान लिया जाए, तो रक्त में रहने वाले इन जीवाणुओं को ध्वंस कर, ज्वर का नाश करने की क्विनाइन में पूरी-पूरी शक्ति है, यह मान लिया जाना चाहिए। मलेरिया-ज्चर के लक्षणों के साथ, क्विनाइन के ज्वर का बहुत कुछ सादृश्य है, इसलिए सभी मत के चिकित्सक क्विनाइन का व्यवहार करते हैं, परिणाम यह होता है कि उससे लाभ होता है। शीत या कंप होकर ज्वर आता है, इसके बाद ताप बढ़ जाता है और शरीर में जलन होती है, अंत में पसीना आकर ज्वर बिल्कुल उतर जाता है। इस प्रकार के क्रम से जब ज्वर उतर जाता है और फिर चढ़ आता है-ये कई क्विनाइन प्रयोग के लक्षण हैं और ये कई लक्षण केवल मलेरिया-ज्वर में ही क्यों, जिस किसी ज्वर में रहे, उसमें ही क्विनाइन का प्रयोग करने पर ज्वर आना बंद हो जाएगा। जो होम्योपैथ क्विनाइन का प्रयोग नहीं करना चाहते, वे होम्योपैथी में-इपिकाक 30, आर्सेनिक 3x, चिनिनम आर्स 3x, फेरम मेट 30 आदि औषधियां और कागजी नींबू का शरबत तथा कुछ अधिक मात्रा में दूध रोगी को सेवन कराने का आदेश देते हैं। इसी से रोगी आरोग्य हो जाता है। यदि आमाशय या अतिसार के साथ ज्वर रहे या बहुत कमजोरी आ जाए और धीमा-धीमा ज्वर रहे, तो एलस्टोनिया की उच्च शक्ति का प्रयोग करना चाहिए।

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